चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं, जैसी दिखती हैं...
अंग्रेजी में कहते हैं- You can't judge #1EK book by its cover अर्थात जैसे किसी आवरण से पुस्तक के विषय में पूरी तरह समझा नहीं जा सकता ठीक वैसे ही चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं, जैसी दिखती हैं...! खाने में तैलीय भोजन छूने से बहुत चिकना लगता है लेकिन शरीर में पहुंचने के बाद यही चिकनाहट हानिकारक साबित होती है। यदि किन्हीं कारणों से जैसे आजकल का जीवन है... व्यक्ति मेहनत नहीं कर पाता है तो उससे पूछिएगा कि ऐसा भोजन उसके लिए कितना कष्टकारक होता है...! इसके विपरीत सूखा भोजन शरीर में पचने में थोड़ा बेहतर रहता है।
इससे स्पष्ट होता है कि कुछ चीजें जैसे दिखती हैं, वैसी होती नहीं हैं। इसलिए किसी भी चीज की बाहरी बनावट से उसके गुण व अवगुण के बारे में पूर्णतया अनुमान नहीं लगाया जा सकता। जैसे- अध्यात्म पर चर्चा की जाए तो सनातन धर्म में ईश्वर को सगुण और निर्गुण माना गया है। कहते हैं कि ईश्वर साकार रूप में है और वह निराकार भी है और वह इन दोनों से भी परे है। जैसे शिवजी के बारे में कहा जाता है कि वही शून्य है, वही इकाय, जिसके भीतर बसा शिवाय। हम ईश्वर को किसी सीमा में नहीं बांध सकते हैं यानी वह अनंत है...!
ज्यादा भ्रमित होने की जरूरत नहीं है...! जैसे आपका नजरिया होगा... तो जरिया निकल आएगा और आपकी दृष्टि #1EK जगह पर टिकजाएगी और फिर वह जो आप देखना चाहेंगे... वही देखेंगे...! इसे थोड़ा समझाने का प्रयास करता हूं...। आप कबीरदास की तरह सोचेंगे तो... ईश्वर को आप निराकार मानोगे और यदि आप सूरदास की तरह सोचेंगे तो आपको ईश्वर साकार दिखेगा। कहते हैं कि सूरदास जी दृष्टिहीन थे लेकिन उन्होंने अपनी अंधी आँखों से भगवान कृष्ण की जीवन यात्रा को देखा था। तभी शायद वे उनकी लीलाओं का इतने बेहतरीन ढंग से चित्रण कर लेते थे...! इसी प्रकार कहा जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास को प्रभु श्रीराम के साक्षात दर्शन हुए थे। इसके बावजूद वह रामचरितमानस में वह लिखते हैं- बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥ आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥ अर्थात वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिह्वा) के ही सारे (छहों) रसों का आनंद लेता है और बिना वाणी के बहुत योग्य वक्ता है।
कुछ समझ आया कि चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं, जैसी दिखती हैं...। निर्गुण भक्ति के अनुसार, ईश्वर #1EK है और सगुण भक्ति के अनुसार भी ईश्वर #1EK है लेकिन उसके नाम भिन्न-भिन्न हैं। बस यही अंतर दोनों वर्गों के लोगों में विरोधाभास पैदा करता है जबकि सत्य सभी जानते हैं। इसी प्रकार तुलसीदास जी लिखते हैं- ... “ढोल गंवार शूद्र पशु और नारी सब ताड़ना के अधिकारी... इस पर उनकी जबरदस्त आलोचना की जाती है... वह भी सही अर्थ को जाने बिना...! रामचरितमानस की इस चौपाई का हर कोई अपने हिसाब से अर्थ निकालता है और अपना नजरिया दूसरों के सामने पेश करता है। चौपाई की गलत व्याख्या कर भ्रम फैलाया जाता है जबकि ताड़ना शब्द का अलग इन सबके लिए अलग-अलग है। ढोल को सही से बजाएंगे तो कान को सुकून देगी और यदि उसे पीटोगे तो... कर्कष ध्वनि से मन दुखेगा। इसी प्रकार अन्य लोगों के साथ भी यथासंभव मर्यादा से युक्त व्यवहार करना चाहिए। इससे समझा जा सकता है कि चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं, जैसी दिखती हैं...।
इसी प्रकार खेल हो या कोई अन्य क्षेत्र कई बार संबंधित व्यक्ति अपना सर्वश्रेष्ठ देने के बावजूद भी निराश हो जाता है क्योंकि वह किन्हीं वजहों से हार चुका होता है यह 1EK नजरिए की बात है! वह दिल से तो चाहता था कि जीत जाए पर समय उसके साथ नहीं था... नतीजा परिणाम उसकी सोच के विपरीत चला जाता है! #1EK स्थान पर पढ़ा था, भाषा का अनुवाद हो सकता है भावनाओं का नहीं... कुछ इसी प्रकार जीवन है। कोई दिल से खेलता है और कोई दिमाग से। प्रेम और मोह में जैसे बड़ा बारीक सा अंतर है ठीक वैसे ही हर क्षेत्र में काम करने वालों में भी अंतर साफ दिखाई देता है। दिल से खेलने वाले या काम करने वाले अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान देते हैं... प्रारब्ध की चिंता नहीं करते।
नजरिया बोले तो आप किसी की किस नजर से देखते हैं। नजरिया हमारे व्यक्तित्व का एक अहम हिस्सा है और यही हमारे जीवन यात्रा की दशा और दिशा तय करता है। जैसे आधा गिलास पानी देखने की कहानी खूब सुनाई जाती है। किसी को गिलास आधा भरा दिखता है तो किसी को खाली लेकिन यह कहानी बहुत पुरानी पड़ चुकी है। थोड़ा दिमाग लगाते हैं। मेरे नजरिये से देखने की कोशिश करें... एक आधी बोतल पानी लें और इसे आपको भरी हुई देखना है... क्या करेंगे...? सवाल बड़ा मौजूं है... थोड़ा दिमाग लगाएं... नहीं समझ आए तो लेट जाएं... अरे यह क्या आपको उत्तर मिल गया। बोतल पूरी भरी नजर आएगी आपकी आंखों में... यह बात और है कि ऊपर से देखने वाले को यह बोतल खाली नजर आएगी। यह स्थिति आपके लिए सकारात्मक रहेगी और दूसरे व्यकि्त के लिए नकारात्मक।
कहते हैं नजरिया बदलने से नजारे बदल जाते है या कोई समस्या हो तो जरिया भी निकल आता है। विस्टन चर्चिल वी बनाकर जीत का निशान दिखाते हैं.. हमारे समाज के बहुत से लोग ऐसा करते हमें दिखते हैं और आगे भी दिखते रहेंगे लेकिन हमारे पास #1EK अंकुश मुद्रा भी है। सही मायने में जो जीतता है, उसे इसी मुद्रा का प्रदर्शन करना होता है। वी कुछ हद तक दो नंबर की तरह नहीं दिखता... इस नजरिए को आप समझेंगे तो आप कभी वी का निशान अपनी जीत के लिए नहीं बनाएंगे और दूसरों को भी रोंकेगे और मुट्ठी बंद कर एक उंगली बाहर कर अंकुश मुद्रा का इस्तेमाल कर जीत का प्रदर्शन करेंगे। आपको समझ आ गया होगा कि चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं, जैसी दिखती हैं...।
Dr. Shyam Preeti



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