सनातन में कहा गया है कि ब्रह्म #1EK है... और 'अल्लाह ...

#1EK खबर.. बीबीसी हिंदी की.... हेडिंग थी- ‘इस्लाम से पहले मूर्ति पूजा होती थी काबा में’.... इसमें लिखा गया था- साल 628 में पैग़ंबर मोहम्मद ने अपने 1400 अनुयायियों के साथ एक यात्रा शुरू की. यह इस्लाम की पहली तीर्थयात्रा बनी लेकिन इससे पहले काबा में मूर्ति पूजा की जाती थी लेकिन बाद में यह बंद हो गई...! इस्लाम धर्म का आधारभूत सिद्धांत 'ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह'. यानी कि 'अल्लाह एक है... और सनातन में कहा गया है कि ब्रह्म एक है...!
दोनों वाक्यों को पढ़ा जाए तो मुझे लगता है कि अर्थ #1EK ही है लेकिन सनातन सोच में जहां मूर्ति पूजा को भी स्वीकार किया गया है, वहीं इस्लाम में इसका घोर विरोध दिखता है, नतीजा... विवाद या बखेड़ा खड़ा हो जाता है। सनातन समुद्र की तरह खुद में सभी को समाहित करने का माद्दा रखता है और निर्गुण और सगुण दोनों तरह की पूजा पद्धतियों को मान्यता देता है और इसीलिए वह समुद्र की तरह विशाल है दूसरी ओर इस्लाम के कथित जानकार कहते हैं कि अल्लाह को किसी मनुष्य के हाथों से बनाई गई तस्वीर में क़ैद नहीं किया जा सकता...! दरअसल, क़ुरान के 42वीं सूरे की 42 नंबर आयत में कहा गया है, "अल्लाह ही धरती और स्वर्ग को पैदा करने वाला है. उसकी तस्वीर जैसी कोई चीज़ नहीं है..." इन बातों के आधार पर इस्लाम के जानकार मतलब निकालते हैं कि अल्लाह को किसी मनुष्य के हाथों से बनाई गई तस्वीर में क़ैद नहीं किया जा सकता। उसका सौंदर्य इतना ज़्यादा और महिमा इतनी बड़ी है कि इसका चित्रण संभव नहीं है। यदि किसी ने ऐसा करने की कोशिश भी की तो इसे अल्लाह का अपमान माना जाएगा। इस्लाम के पैगंबर मोहम्मद साहब के बारे में भी यही मान्यता है। अब गोस्वामी तुलसीदास की लेखनी की बात करता हूं... “ढोल गंवार शूद्र पशु और नारी सब ताड़ना के अधिकारी... इस पर उनकी जबरदस्त आलोचना की जाती है... वह भी सही अर्थ को जाने बिना...! रामचरितमानस की इस चौपाई का हर कोई अपने हिसाब से अर्थ निकालता है और अपना नजरिया दूसरों के सामने पेश करता है। चौपाई की गलत व्याख्या कर भ्रम फैलाया जाता है जबकि ताड़ना शब्द का अलग इन सबके लिए अलग-अलग है। ढोल को सही से बजाएंगे तो कान को सुकून देगी और यदि उसे पीटोगे तो... कर्कष ध्वनि से मन दुखेगा। इसी प्रकार अन्य लोगों के साथ भी यथासंभव मर्यादा से युक्त व्यवहार करना चाहिए। इससे समझा जा सकता है कि चीजें हमेशा वैसी नहीं होतीं, जैसी दिखती हैं..।
इस्लाम के मामलों में भी इसे समझा जा सकता है। मक्का से करीब आठ किलोमीटर पहले मीक़ात नामक जगह है... जहां से हज की आधिकारिक प्रक्रिया शुरू होती है। हज क्या है... यह हर मुसलमान जानता है और वहां पर जाने की तमन्ना रखता है। हज पर जाने वाले सभी यात्री यहां से एक ख़ास तरह का कपड़ा पहनते हैं जिसे अहराम कहा जाता है। यह सिला हुआ नहीं होता है। यही परंपरा सनातन धर्म में पहले से है। धार्मिक अनुष्ठान और पूजा करते समय सिले हुए कपड़े धारण करना ठीक नहीं माना गया है। इसके पीछे यह मान्यता है कि सिले हुए कपड़े शुद्ध नहीं होते। इन वस्त्रों से बंधन का एहसास बना रहता है। इसीलिए विशेष पूजा और अनुष्ठान के समय पुरुष धोती और महिलाएं सिर्फ साड़ी पहनकर पूजन किया करती हैं। ये दोनों वस्त्र सिले हुए नहीं होते हैं। तीन सूत का धागा कंधे में डालकर और तन पर एक ही सफेद कपड़ा पहनकर हिंदू काशी में परिक्रमा करता है तो उसे दि्वज कहा जाता है और मक्का शरीफ में हज क दौरान भी यही वेशभूषा रहती है... तो उस मुस्लिम को हाजी कहा जाता है। बाद में हज यात्री अपना सर भी मुड़वाते हैं... और सनातन में मुंडन की परंपरा युगों पुरानी है। हज यात्रा के दौरान काबा के सात चक्कर लगाने को धार्मिक तौर पर तवाफ़ कहा जाता है और हमारे यहां सात फेरों की महत्ता जगजाहिर है। इतनी समानताएं होने के बावजूद इस्लाम के कट्टर जानकर खुद को अलग साबित करने पर न जाने क्यों तुले रहते हैं...? यह मुझे सवाल बड़ा मौजूं लगता है। हज यात्रा में पहने जाने वाले वस्त्र को अहराम या एहराम में ‘राम’ नाम आता है लेकिन राम से इन्हें चिढ़ भी है...!
#1EK और बात... कहते हैं कि जमजम लाने के लिए हजयात्रियों में होड़ रहती है... और हमारे यहां गंगा के जल को हम पवित्र मानते हैं तो इसे हमारी कमी बताया जाता है... काहे ...? पूजा से पहले हम जल से आचमन करते हैं... और मुस्लिम वुजू... तो अंतर क्या है? पूजा स्थल कोई भी है... वहां पर पवित्र होकर जाना चाहिए... मन और तन दोनों से... यह जब सभी मानते हैं तो फिर काहे का झगड़ा...? हम व्रत रखते हैं तो वह इसे रोज़ा कहते हैं...! हम दान-पुण्य को धार्मिक दृष्टिकोण से श्रेष्ठ कर्म मानते हैं तो मुसि्लम जकात निकालना अपना फर्ज समझते हैं। हज को संस्कृत के व्रज का अपभ्रंश माना जाता है... इसका अर्थ है #1EK स्थान से दूसरे स्थान पर जाना। इसी प्रकार वज्रासन शब्द असल में दो शब्दों वज्र और आसन से मिलकर बना है। इसमें वज्र शब्द का संस्कृत में अर्थ आकाशीय बिजली या हीरा होता है जबकि आसन का अर्थ बैठना होता है। ये आसन शरीर में बिखरी हुई ऊर्जा को व्यवस्थित कर सकता है। मुस्लिम जब नमाज पढ़ते हैं तो इसी मुद्रा में बैठते हैं। अंतिम बात... जब हम मर जाते हैं तो अलग-अलग परंपराएं हैं... लेकिन #1EK बात कॉमन हैं... प्रार्थना। हम श्राद्ध कर्म करते हंै तो मुस्लिम फातिहा पढ़ते हैं। मेरा मानना है कि हम #1EK हैं और सनातन में तभी कहा गया है वसुधैव कुटुंबकम बोले तो #1EK लेकिन इसके बावजूद ... दुनिया में एका नहीं है। हैं ना गजब का इत्तेफाक है। हालांकि #1EK उम्मीद अभी जिंदा है...!
Dr. Shyam Preeti

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