सिंहासन खाली करो... कि जनता आती है...!

#1EK डॉ. श्याम प्रीति रामायण काल में हनुमान जी ने लगाई थी सोने की लंका को धू-धू कर जला डाला था...! यह काम उन्होंने करके रावण को प्रभु श्रीराम की ताकत का नमूना दिखाया था लेकिन रावण तो मद में चूर था तो कैसे श्रीराम की प्रभुताई स्वीकारता... और नतीजा तुलसीदास जी लिखते हैं- ‘डोली भूमि गिरत दसकंधर छुभित सिंधु सरि दिग्गज भूधर।’ संप्रति, रावण जैसा ही हाल श्रीलंका की अर्थव्यवस्था का हो गया है..! पब्लिक गुस्से में है और श्रीलंका में ‘लंका’ लगी हुई है...! अर्थव्यवस्था की चूं बोलने से नाराज लोग सड़कों पर ही नहीं सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं के घरों में घुसकर अराजकता दिखा रहे हैं...! अरे सरकार, थोड़ा ठंड रखें। पहले थोड़ा ज्ञान बढ़ाते हैं। इतिहास और भौगोलिक तथ्यों की बातें करते हैं। भारत के दक्षिण में हिंद महासागर में महज 32 किलोमीटर दूर स्थित श्रीलंका का पहले 1972 तक ‘सीलोन’ नाम था, जिसे बदलकर पहले ‘लंका’ तथा 1978 में इसके आगे सम्मानसूचक शब्द ‘ श्री’ जोड़कर ‘श्रीलंका’ कर दिया गया। यह वही दौर था जब यहां सम्मान के लिए बड़ी लड़ाई छिड़ने लगी थी। सिंहली और तमिलों का संघर्ष बढ़ना शुरू हो चुका था। दरअसल, यहां पर बौद्ध धर्म को प्राथमिकता पर रखने से तमिल अल्पसंख्यकों में नाराजगी बढ़ी। इसके बाद सरकार ने मानकीकरण की नीति लागू कर शिक्षा की असमानता दूर करने का दावा किया पर हुआ उल्टा। इसका लाभ सिंहलियों को हुआ और श्रीलंका के विश्वविद्यालयों में तमिल छात्रों की संख्या लगातार घटती गई। इसके बाद तमिल राष्ट्रवादी पार्टी यानी फेडरल पार्टी ने अलग तमिल राष्ट्र की मांग कर डाली। इसी के बाद तमिलों ने हक की लड़ाई शुरू कर दी। मई 1976 में बने लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम बोले तो लिट्टे ने हिंसक पृथकतावादी अभियान शुरू कर दिया था और उत्तर व पूर्वी श्रीलंका में एक स्वतंत्र तमिल राज्य की स्थापना के लिए जबरदस्त अभियान छेड़ दिया। यह एशिया का सबसे लंबे समय तक चलने वाला सशस्त्र संघर्ष था और लंबे समय तक चला। इसका खात्मा मई 2009 में लिट्टे की हार के साथ हुआ लेकिन इस दौरान कितने लोग मरे, कितनी संपदा नष्ट हो गई... इस पर चर्चा नहीं करूंगा क्योंकि सबसे ज्यादा ‘हानि’ मानवता की हुई थी...! राष्ट्रपति महिंदा राजपक्सा ने 16 मई को विजय की घोषणा कर दी और लिट्टे के सबसे बड़े विद्रोही नेता प्रभाकरण को सेना के हाथों 19 मई को मार दिया गया। इसके बाद लगा सब ठीक हो जाएगा और दावा किया गया कि श्रीलंका में रामराज्य आएगा पर नफरत की राजनीति से सिर्फ आग लगती है और वहीं हुआ और नतीजा आज श्रीलंका की जनता भोग रही है। गृहयुद्ध के दौरान श्रीलंका का बजट घाटा बहुत ज्यादा था और इसकी की परिणति आज का संकट बनकर उभरी। यहां के आर्थिक संकट के पीछे चीन को बड़ी वजह बताया जा रहा है। हमारे धर्मग्रंथों में लंका को सोने की बताया जाता है तो प्राचीन काल में इसकी संपन्नता की कल्पना करने के लिए तुलसीदासजी जैसा दृष्टिकोण मेरे पास तो नहीं है लेकिन आंख बंदकर इसे अनुभव करने की कोशिश कर सकता हूं... आप भी करें, अच्छा लगेगा। खैर, सभी को दिवास्वप्न से बाहर आना पड़ता है तो हम भी आते हैं और आगे बढ़ते हैं। बताते हैं कि पिछले एक दशक के दौरान श्रीलंकाई सरकार ने सार्वजनिक सेवाओं के लिए विदेशों से बड़ी रकम कर्ज़ के रूप में ली और नतीजा अर्थव्यवस्था कमजोर होती गई। कई आपदाओं ने हालत और पतली कर दी। बढ़ते कर्ज ने सब बर्बाद कर दिया और महंगाई चरम पर पहुंच गई। विदेशी मुद्रा भंडार लगभग खाली होने से वह ना खाद्य सामग्री आयात करने की स्थिति में रहा और ना तो पेट्रोल डीजल, रसोई गैस और दवाएं। इसके बाद जरूरी चीजों की कीमतें आसमान में पहुंच गईं। परेशान होकर जनता बेकाबू हो चुकी है। लोगों का गुस्सा देख श्रीलंका के राष्ट्रपति गोतबाया राजपक्षे देश छोड़कर मालदीव भाग गए। अन्य नेताओं की हालत भी पतली हो गई और देश में आपातकाल लागू हो चुका है। साफ दिख रहा है कि जनता का गुस्सा अपनी सभी सीमाएं लांघ चुका है। श्रीलंका के इतिहास की यह अभूतपूर्व घटना है। यहां पर रामधारी सिंह की लाइन याद आ रही है... सिंहासन खाली करो... कि जनता आती है...!

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