इलेक्ट्रॉनिक मीडिया बोले तो चमकते चेहरों के साथ बातों का संगीतमय संजाल...!
देश के संविधान में लोकतंत्र के चार मुख्य स्तंभों में से एक मीडिया है। ऐसे में उसकी समाज और देश के प्रति बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है। एक गलत सूचना से देश में आग लग सकती है और फिर उसे दुरुस्त करने में सालों लग जाते हैं। ऐसे में मीडिया की जवाबदेही बनती है कि वह गलत तथ्यों को परोसने से पहले कई बार परख ले। समाज के प्रति प्रिंट मीडिया तो थोड़ा जिम्मेदार लगता है लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं। अभी हाल में मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमना ने भी उसे कटघरे में खड़ा किया है। मेरी नजर में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया बोले तो चमकते चेहरों के साथ बातों का संगीतमय संजाल...!
बदलते दौर में संचार माध्यम (मीडिया) के अंतर्गत टेलीविजन, रेडियो, सिनेमा, समाचार पत्र, पत्रिकाओं के अलावा अब सोशल मीडिया बड़ा प्लेटफार्म बनकर उभरा है। यही वजह है कि हाल के दिनों में कई गलत सूचनाओं की वजह से समाज में बिखराव बढ़ रहा है। इलेक्ट्रॉनिक या सोशल मीडिया में सूचनाओं का प्रवाह ज्यादा तेजी से होता है। वहीं प्रिंट मीडिया में थोड़ी जल्दबाजी कम है लेकिन यहां भी प्रिंट आर्डर को देखते हुए कई बार जल्दबाजी करनी पड़ती है। ऐसे में कई बार गलतियां छप जाती हैं। हालांकि इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों की तुलना में यह कम मारक होती है। दरअसल, सूचनाएं वायरल होने की वजह से तेजी से फैलती हैं जबकि प्रिंट मीडिया का प्रोडक्ट इतनी तेजी से नहीं फैल सकता। अब हालांकि प्रिंट मीडिया भी ऑनलाइन उपलब्ध है लेकिन इसमें लगाम... है। क्योंकि इनके प्रकाशन का समय निश्चित होता है।
दूसरी ओर एंड्रॉयड फोन के आने के बाद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की पहुंच हर हाथ तक हो गई है। कई भिखारी भी ऐसे दिख जाते हैं जो फोन रखते हैं और छुट्टी मिलते ही ऑनलाइन हो जाते हैं। आसपास नजर घुमाकर देख लीजिए... मैं सच कह रहा हूं। इन हालातों में मीडिया को थोड़ा जिम्मेदार बनना होगा। प्रिंट मीडिया पर मैंने अपने अनुभव से जो उपन्यास ‘मैं अख़बार हूं... 1EK NewsWay’ लिखा है, उसमें मैंने उसके हर पहलू को दिखाने का प्रयास किया है। प्रिंट मीडिया की दुनिया कैसी है, और कैसे काम करती है, इसे वेबसीरीज के तौर पर लिखा है...। इसमें कैरेक्टर तमाम हैं पर.... मुख्य किरदार अख़बार है। अखबार बोले तो आम जन की आवाज और जम्हूरियत का पैगाम।
सच यह भी है कि पहले मीडिया का मतलब मिशन होता था बोले तो समाजसेवा लेकिन अब यह शुद्ध धंधा बन चुका है। कमाई के लिए खबरें बेची जा रही है और पेड न्यूज का नया कल्चर सामने आ चुका है। यह बदलाव मीडिया की विश्वसनीयता को भंग कर रहा है लेकिन अब भी कई मीडिया ग्रुप सामाजिक सरोकार से जुडे़ हुए हैं और काम भी कर रहे हैं। सही मायने में मीडिया किसी भी प्रकार का हो, उसका काम आम जनता की आवाज बुलंद करना है और उसे शासन तक पहुंचाकर अंजाम तक पहुंचाना होता है। देश में मीडिया को विचार अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता संविधान प्रदत्त है लेकिन पत्रकार प्रजाति के तमाम बंदे अपने निजी स्वार्थवश राह से भटक जाते हैं और भ्रष्ट हो जाते हैं। नतीजा ... समाज का बंटाधार।
इस विषय पर अगस्त में रिटायर्ड हो रहे मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एनवी रमना की टिप्पणी उल्लेखनीय है। पिछले दिनों झारखंड में एक कार्यक्रम के दौरान लोगों को संबोधित करते हुए उन्होंने मीडिया को आड़े हाथों लिया। कहा- हम देख रहे हैं कि मीडिया कंगारू कोर्ट चला रहे हैं। इसके चलते कई बार तो अनुभवी न्यायाधीशों को भी सही और गलत का फैसला करना मुश्किल हो जाता है। उन्होंने कहा, कई न्यायिक मुद्दों पर गलत सूचना और एजेंडा चलाना लोकतंत्र के लिए हानिकारक साबित हो रहा है। सीजेआई ने कहा, हम अपनी जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते। यह प्रवृत्ति हमें दो कदम पीछे ले जा रही है। प्रिंट मीडिया में अभी भी कुछ हद तक जवाबदेही है, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कोई जवाबदेही नहीं बची है।
इन हालातों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को अपनी विश्वसनीयता बचाए रखने के लिए टीआरपी की दौड़ से बचना होगा और चमकते चेहरों के साथ बातों का संगीतमय संजाल...बुनने से पहले उसकी अहमियत को परखना होगा। एंकर के मुंह से निकली बात और तीर से छूटा कमान... कभी भी किसी का सिर कलम कर सकता है...! यह गंभीरता से सोचना होगा। खबरों के नाम पर सनसनी परोसना बंद करना होगा। ... और अंतिम बात... टीआरपी की लड़ाई में खुद को नंबर-एक साबित करने के लिए जनता से कहलाना होगा कि फलाना चैनल है सबसे भरोसेमंद और हमारा पसंदीदा...! नंबर-एक किसी को जनता घोषित करे तो बात समझ आती है... अपने को नंबर-एक घोषित करना, खुद मिट्ठू मियां बनना नहीं है क्या?
डॉ. श्याम प्रीति
लेख पर कॉमेंट जरूर करें... प्रतीक्षा में...
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