काका हाथरसी ः #1EK कवि, जिसकी मौत पर श्मशान में हुआ था हास्य कवि सम्मेलन
काका हाथरसी... #1EK कवि जो शायद दुनिया को हंसाने के लिए ही आया था और जब संसार से विदा हुआ तो श्मशान में अंतिम संस्कार के समय हास्य कवि सम्मेलन चल रहा था...! अई गजब... न कहिएगा... काका हाथरसी के जीवन के साथ दूसरा इत्तफाक और भी गजब का रहा। जिस 18 सितंबर तारीख को इस धरा पर उनका अवतरण हुआ, उसी दिन वह इस दुनिया से रुख्सत भी हो गए। इस प्रकार उनके चाहने वालों में अजीब दुविधा बनी है कि वह जन्मदिन की खुशी मनाए या पुण्यतिथि का शोक! खैर यही जीवन और ऐसे ही तमाम इत्तफाक से हम रोजाना रूबरू होते हैं।
जहां तक काका हाथरसी की शख्सियत से जो भी परिचित हैं, वह कहता है कि हास्य और काका #1EK-दूसरे के पर्याय रहे। वह किसी के अंतिम संस्कार में जाना पसंद नहीं करते थे, लेकिन जब उनके अंतिम सफर की बारी आई तो पूरा हाथरस उनकी इस यात्रा का गवाह बना था। वह अपनी वसीयत तक में लिख गए थे कि कोई उनकी मौत पर रोये नहीं। सब हंसे... यह भी सच हो गया। श्मशान घाट पर उनके अंतिम संस्कार के समय हास्य कवि का आयोजन किया गया था और...! इससे पहले उनके शव को ऊंटगाड़ी पर रखकर श्मशान लाया गया था। हास्य कवि सम्मेलन में मौजूद लोग उनकी मंशा के मुताबिक ठहाके लगा रहे थे!
वर्ष 1906 को काका का जन्म हुआ और वर्ष 1995 में उनका निधन हो गया। इस बीच की यात्रा के दौरान उन्होंने हास्य को हिंदी साहित्य से जोड़ा। काका का असली नाम बहुत कम लोग जानते होंगे, काहे... काका नाम से नहीं अपने काम से पहचाने गए। चलिए हम आपको बताते हैं कि उनका नाम था प्रभूलाल गर्ग और हाथरस शहर की जैन गली में उनका बचपन बीता। पिता की मौत जल्द होने पर वह ननिहाल इगलास चले गए और वहीं पढ़ाई की। इस बीच उनके भीतर का कवि जन्म ले रहा था। किशोर अवस्था में वह फिर परिवार के साथ हाथरस आ गए थे। बाद में उनका विवाह रतन देवी के साथ हुआ लेकिन वह काका की रचनाओं में वह काकी बनी रहीं।
आखिर प्रभूलाल गर्ग काका कैसे बने? इसका भी #1EK दिलचस्प किस्सा है। एक जगह पढ़ा था कि अग्रसेन जयंती पर हाथरस के नवयुवक अग्रवाल मंडल की ओर से आयोजित एक नाटक में ‘काका’ के नाम से एक चौधरी की खलनायक की भूमिका का सफल मंचन किया। इसके बाद से लोग उन्हें काका के नाम से पुकारने लगे। मित्रों की सलाह पर उन्होंने इस नाम के आगे ‘हाथरसी’ शब्द और जोड़ा। फिर समय के साथ वह इसी नाम से प्रसिद्ध भी हो गए।
स्वाधीनता आंदोलन हो या स्वतंत्रा प्रापि्त का भारत, उनकी कलम ने व्यंग्य के तीखे खूब बाण चलाए। वर्ष 1957 में लाल किले पर हुए कवि सम्मेलन से काका की लोकपि्रयता को चार चांद लग गए। आज की बात करें तो प्रधानमंत्री मोदी हो या उनके धुर विरोधी राहुल गांधी, दोनों की काका की रचनाओं को गाहे-बगाहे सुना देते हैं।
काका की #1EK रचना है- ‘डॉक्टर, वैद्य बतला रहे कुदरत का कानून, जितना हंसता आदमी, उतना बढ़ता खून, उतना बढ़ता खून, की जो हास्य में कंजूसी, सुंदर से चेहरे पर छायी देखो मनहूसी।’ इसी से उनके जीवन का ‘उद्देश्य’ समझा जा सकता है। मुझे रेडियो पर उनका एक प्रोग्राम याद आता जाता है, जिसमें वह श्रोताओं को उनके प्रश्नों के जवाब देते थे। ये उत्तर ऐसे होते थे कि चेहरे पर मुस्कान खिल जाती थी। सच में काका हाथरसी अद्वितीय थे और उनकी तमाम रचनाएं हैं कालजयी...!
डॉ. श्याम प्रीति
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