#1EK डॉक्टर की मौत... जिसने हार्ट अटैक का इंतजार नहीं किया...!

वर्ष 1991 में निर्देशक तपन सिन्हा ने #1EK कालजयी फिल्म बनाई थी #1EK डॉक्टर की मौत। इसमें डॉ. सुभाष मुखोपाध्याय के जीवन से प्रेरित #1EK बेचैन कर देने वाली कहानी है। आजादी के नायक सुभाष चंद्र बोस को तो आम भारतीय जानता है लेकिन इत्तेफाक से इसी नाम से और #1EK शख्सियत हजारीबाग में जन्मी थी, जिसने इतिहास तो रचा लेकिन गुमनामी के पन्नों पर...! यह बात और है कि बाद में उसकी उपलब्धियां जब लोगों के सामने आईं, तब तक वह इस दुनिया से रुख्सत हो चुका था। वह शख्स अपनी मौत नहीं मरा था, बल्कि प्रतिभा हनन के चलते उसने आत्मघाती कदम उठाया था और अपने सुसाइड नोट में लिखा था- "मुझे मारने के लिए मैं हर रोज दिल का दौरा पड़ने का इंतजार नहीं कर सकता।"
दरअसल, डॉ. सुभाष की मौत.... प्रतिभा के हनन की कहानी है। हमारा सामाजिक ढांचा ऐसा ही है, जिसमें औसत दर्जे की बुद्धि वाले लोगों की जमात है...! क्षमा कीजिएगा... गुस्ताफी माफ... लेकिन यही कड़वा सच है... जैसे मुझे लोकतंत्र और भीड़तंत्र में कोई समानता नहीं दिखती... क्योंकि हमारे मुल्क में हर वोट की कीमत समान है...। इस भीड़ में तमाम कुशाग्र बुद्धि वाले व्यक्ति खो जाते हैं... डॉ. सुभाष भी इसी खामी का शिकार बने। उनकी मौत का वर्ष था 1981 और जगह थी कोलकाता...! इसे इत्तफाक भी कह सकते हैं कि अंतिम समय में नेताजी सुभाष चंद्र बोस गुमनामी के शिकार हुए और डॉ. सुभाष भी...! पहले डॉ. सुभाष के बारे में आप थोड़ा जान लें... लेकिन #1EK सवाल खुद से पूछें... क्या आप जानते हैं कि चंद्रमा पर सबसे पहला कदम किसने रखा था? जवाब आपके मुख से तुरंत निकलेगा.... नील आर्मस्ट्रांग लेकिन यदि आपसे सवाल किया जाए कि चंद्रमा पर दूसरा कदम किसने रखा था? तो आप गूगल बाबा की शरण में पहुंच जाएंगे... इसके बाद लंबी सांस भरकर जवाब देंगे... ओह...! बज़ एल्ड्रिन...! जी हां... ऐसा ही कुछ डॉ. सुभाष के साथ भी हुआ।
कहानी कुछ इस प्रकार है- दुनिया की सबसे पहली टेस्ट ट्यूब बेबी लुईस ब्राउन ने 25 जुलाई 1978 को जन्म लिया। जगह थी इंग्लैंड का शहर ओल्डहैम....! आईवीएफ (इन विट्रो फर्टिलाइजेशन) बोले तो पिता के शुक्राणु और माता के अंडाणु को अलग निषेचित कर मां के गर्भ में प्रत्यारोपित करके बच्चे को जन्म देने की विधा है। ऐसे बच्चों को टेस्ट ट्यूब बेबी कहा जाता है। इसी 25 जुलाई को ही विश्व आईवीएफ दिवस मनाया जाता है। दुनिया में यह विज्ञान के लिए #1EK बहुत बड़ी उपलब्धि थी लेकिन इस खोज का पीछा एक भारतीय मेधा कर रही थी... कौन?.... डॉ. सुभाष...! और इस घटना के महज 67 दिनों के बाद भारत की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी नवरात्र को जन्मी... नाम रखा गया दुर्गा... जिसे बाद में कनुप्रिया अग्रवाल के नाम से दुनिया ने जाना। लेकिन... यह कहानी पढ़ने में जितनी आपको आसान लग रही है... उतनी ही यह दुखद भी है। यदि दुर्गा का जन्म थोड़ा पहले होता तो शायद... लेकिन... किंतु... परंतु... अगर... मगर... की वजह से ही न जाने कितनी कहानियां पन्नों तक पहुंच नहीं पाती हैं...! कुछ ऐसा ही डॉ. सुभाष के साथ भी हुआ। 16 जनवरी 1931 को जन्मे सुभाष ने कलकत्ता नेशनल मेडिकल कॉलेज से फिजियोलॉजी में ऑनर्स की डिग्री के साथ स्नातक किया। फिर वह वहीं बस गए। उन्होंने कलकत्ता नेशनल मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस (1955) की पढ़ाई की। इसके बाद उन्होंने पीएच.डी. (1958) कलकत्ता विश्वविद्यालय के राजाबाजार साइंस कॉलेज परिसर सेप्रो सच्चिदानंद बनर्जी के नेतृत्व में 'प्रजनन शरीर क्रिया विज्ञान' में की। इसके बाद उन्होंने अपनी दूसरी पीएच.डी. 1967 में एडिनबर्ग विश्वविद्यालय से ' प्रजनन एंडोक्रिनोलॉजी' में पूरी की। इस बीच उन्होंने क्रायोबायोलॉजिस्ट और स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. सरोज कांति भट्टाचार्य सुनीत मुखर्जी के साथ टेस्ट ट्यूब बेबी प्रोजेक्ट पर काम किया और सफल भी हुए लेकिन...। जहां दुनिया को पहली टेस्ट ट्यूब बेबी देने वाले प्रोफेसर एडवर्ड्स के प्रयासों से 1978 में ओल्डहैम जनरल हॉस्पिटल में लुईस ब्राउन का जन्म हुआ और इसी खोज की बदौलत उन्हें 2010 में नोबेल पुरस्कार और 2011 में नाइटहुड से सम्मानित किया गया और डॉ. सुभाष को क्या मिला... #1EK असमय मौत...! तारीख थी 19 जून 1981 और जगह थी...उनका आवास। यह कड़वा सच है...!
जब तीन अक्तूबर 1978 को भारत की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी दुर्गा का जन्म हुआ तो डॉ. सुभाष खुशी से झूम उठे थे, लेकिन इसके बाद जब उन्होंने अपने दावे की चर्चा की तो उन पर पहाड़ टूट पड़ा। इसी साल 18 नवंबर को पश्चिम बंगाल सरकार ने डॉ. सुभाष के दावे पर सवाल उठाने के लिए चिकित्सा संघ के साथ एक 'विशेषज्ञ' समिति नियुक्त की। इसने डॉ. सुभाष के दावे को सही नहीं माना। बताते हैं कि डॉ. सुभाष को कमेटी ने बुलाया और अजीब-अजीब सवाल पूछे और उनका मजाक बनाया गया। इतना ही नहीं उनका तबादला तक कर दिया गया ताकि वह अपना शोध जारी न रख सके। नतीजा... वे अवसाद में चले गए। उन्हें #1EK हार्ट अटैक भी आया लेकिन वह बच गए लेकिन प्रताड़ना से तंग आकर उन्होंने सुसाइड नोट लिखकर आत्मघाती कदम उठा लिया।
समय तो रुकता नहीं है... सो आगे बढ़ गया। उनकी कहानी धूमिल हो गई लेकिन... तब तक आईवीएफ तकनीकी से दुनिया परिचित हो चुकी थी। डॉ. सुभाष के मौत के पांच साल बाद 6 अगस्त 1986 को मुंबई में आईवीएफ से हर्षा चावड़ा नामक बच्ची का जन्म हुआ। इसका श्रेय डॉ. टीएस आनंद कुमार (आईसीएमआर के डायरेक्टर) और उसकी टीम को गया। हर्षा को भारत की पहली टेस्ट ट्यूब बेबी कहा गया तो डॉ. आनंद की लोकप्रियता बढ़ गई। उधर, डॉ. सुभाष की खोज की चर्चा खत्म हो चुकी थी लेकिन उनकी पत्नी नमिता के पास पति के रिसर्च पेपर आदि रखे थे। इस बीच इत्तफाक से 1997 में #1EK साइंस कार्यक्रम में हिस्सा लेने डॉ. आनंद कोलकाता पहुंचे तो डॉ. सुभाष के सहयोगियों के साथ नमिता ने उनसे मुलाकात की। इसके बाद डॉ. आनंद ने उन पेपरों का अध्ययन किया तो उनकी आंखें खुली रह गईं। तब उन्होंने वह ऐतिहासिक काम किया, जो शायद कोई करना पसंद नहीं करेगा...! भारत में वो शख्स जिसके नाम पहले टेस्ट ट्यूब बेबी की उपलब्धि दर्ज थी, उसने सच का साथ देने का निश्चय किया और खुद को नंबर-2 की श्रेणी से नवाजे जाने की मुहिम शुरू की।
डॉ. सुभाष के कार्य को मान्यता दिलाने की उनकी कोशिश रंग लाने लगी और इसके बाद पहली टेस्ट ट्यूब बेबी दुर्गा (कनुप्रिया अग्रवाल) भी खुद सामने आ गईं।
उन्होंने उन परिस्थितियों का जिक्र किया कि कैसे उनके माता-पिता दुनिया को यह सच नहीं बता सके थे। इस कार्यक्रम का आयोजन डॉ. कुमार ने ही किया था। डॉ. आनंद के प्रयास से ही वर्ष 2003 में आईसीएमआर ने डॉ सुभाष मुखोपाध्याय के कार्य को मान्यता दी। इसके बाद 2007 में विश्व स्तर पर भी उनकी उपलब्धियों को डिक्शनरी ऑफ मेडिकल बायोग्राफी में शामिल किया गया। इसमें दुनिया भर के 1100 प्रमुख चिकित्सकों के योगदान को शामिल किया गया था। अब लिखित तौर पर डॉ. सुभाष मुखोपाध्याय भारत के पहले टेस्ट ट्यूब बेबी के जनक बन गए थे लेकिन गौरव के इस क्षण को महसूस करने के लिए वे अब इस दुनिया में नहीं थे।
साफ है कि डॉ. सुभाष और डॉ. एडवर्ड ने आईवीएफ पर लगभग साथ-साथ कार्य आरंभ किया था। यदि भारत सरकार डॉ. सुभाष का साथ देती... तो संभव था कि उन्हें भी डॉ. एडवर्ड के साथ संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार मिल सकता था...! लेकिन भला हो डॉ. आनंद का, जो उन्हें भारत में आईवीएफ का पितामाह घोषित करने में सहायक बने। स्पष्ट हो जाता है कि यदि डॉ. आनंद ने डॉ. सुभाष मुखोपाध्याय को श्रेय नहीं दिया होता... तो वह ‘हीरो’ नहीं बनते... लेकिन डॉ. आनंद सच में #1EK महान शख्सियत थी... बाद में डॉ. सुभाष की जयंती के दस दिन के बाद 26 जनवरी 2010 को वह भी दुनिया से रुख्सत हो गए। Dr. Shyam Preeti

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