प्यार और प्रेम में #1EK अंतर है... यदि समझेंगे तो...
प्रेम... जितना छोटा शब्द है... उसके नितिहार्थ उतना ही व्यापक है। कहते हैं कि समुद्र की गहराई को शायद मापा जा सकता है लेकिन प्रेम की गहराई नापने के लिए कोई पैमाना ही नहीं बना... यह वाकई अद्भुत है। प्रेम निःस्वार्थ रहता है...। जैसे #1EK मां अपने बच्चे से करती है... यहां बच्चे के तात्पर्य बेटे से ही नहीं है... वह पुत्री भी हो सकती है। दरअसल, कुछ मूर्घन्य विद्वान शब्दों को पकड़ने की कोशिश करते हैं, इसलिए यह बात स्पष्ट की...।
प्रेम की सीमाओं को जैसे पकड़ा नहीं जा सकता... वैसे ही उसे बांधा भी नहीं जा सकता है। कोई किसी से भी प्रेम कर सकता है... क्योंकि प्रेम भले स्वतंत्र हो...लेकिन प्रेम में स्वतंत्रता नहीं होती...। यही प्रेम की खूबी है। तभी कहा जाता है कि प्रेम अपेक्षा नहीं करता अर्थात वह स्वार्थ से परे रहता है। जहां पर कुछ पाने की लालसा... कुछ हासिल करने की चाहत पनपती है तो वह प्रेम नहीं हो सकता। प्रेम अलौकिक है... इसीलिए श्रीकृष्ण और राधा के प्रेम को भारतीय जनमानस ने खुले दिल से स्वीकारा है।
दरअसल, अधिकतर लोग मोह और प्रेम में अंतर नहीं कर पाते क्योंकि दोनों में #1EK बारीक-सा भेद है। इसी प्रकार प्यार और प्रेम में भी अंतर है...! शब्दों की लड़ाई में उलझेंगे तो कुछ लोग कहेंगे कि दोनों #1EK अर्थ वाले हैं... लेकिन जैसे #1EK असीमित है... वैसा ही प्रेम है...!
उदाहरणार्थ - हम जब अकेले हैं तो #1EK... दो हो जाते हैं तब भी #1EK... रहते हैं और ज्यादा लोग मिल जाएं तो भी #1EK ही कहलाते हैं....! लेकिन अंग्रेजी में इसे वन ONE कहते हैं... तो क्या #1EK को ONE के बराबर रखा जा सकता है...? नहीं... चूंकि हिंदी के ‘एक’ को लोगो के तौर पर बनाना था... इसलिए इंटरनेशनल भाषा के तौर पर अंग्रेजी को चुना... नतीजे में EK आया... अब अंग्रेजी में सभी इसे यही लिखते थे... पहचान अमिट रहे... तो #1EK का जन्म हुआ...!
अब प्यार की बात... जनमानस में कहानियां प्रचलित रही हैं... फिल्मों के आगमन ने प्यार... को और व्यावसायिक बना दिया... ढाई आखर का यह शब्द... सबको लुभाता रहा है और रोमांचित भी करता है... नतीजा... यह बिक रहा है... बेचा जा रहा है। अब तो बाजार वेलेंटाइन डे के नाम पर इसकी मार्केटिंग कर अपना मुनाफा बढ़ा रहा है। जो कुछ देकर.... प्राप्त करने की प्रवृति्त का अनुसरण करता है तो वही प्यार करता है...!
#1EK स्थान पर कहीं पढ़ा था कि प्यार लेना जानता है। उसकी चाहत होती है, मुझे वह... मिल जाए जबकि प्रेम में कोई चाहत नहीं होती। प्रेम तो बस देने का नाम है। प्रेम में उम्मीद भी नहीं होती.. यदि कोई उम्मीद है तो वह मोह है। यही घृणा में बदलता है...! प्रश्न उठता है कि यह कैसा प्रेम... जो हालात के हिसाब से बदलने लगे?
कृष्ण-राधा की प्रेम कहानी में ये सभी रंग हैं। कृष्ण राधा को प्रेम समझाते हैं। पहले वह अपनी लीला से राधा का भय दूर करते हैं... फिर मोह। इसके बाद घृणा... जिससे क्रोध उत्पन्न होता है... उसे भी दूर करते हैं। अंत में कृष्ण ने स्वार्थ दूर कर राधा के माध्यम से हमें प्रेम सिखाया। राधा तो वह नाम है जिनसे प्रेम परिभाषित होता है। राधा नाम से कृष्ण को पाया जा सकता है पर राधा के बिना कृष्ण का कोई अर्थ नहीं इसीलिए तो राधा का नाम हम पहले लेते हैं। राधे-राधे...! कहते ही हमें कृष्ण की याद आ जाती है... यही सही मायने में प्रेम है।
प्रेेम के सागर में गोते लगाने के बाद अच्छे-बुरे का अंतर मिट जाता है। जिससे भी व्यकि्त प्रेम करता है, वह उसकी खुशी के लिए सब कुछ करने को तैयार हो जाता है जबकि आज प्यार का दावा करने वाले और वालियां... उस पर हक जताने लगते हैं। जहां हक जताया जाता है... वही प्रेम... नहीं प्यार के अर्थ को प्राप्त कर जाता है क्योंकि प्यार में जीने-मरने वालों की कसमें खाने वाले तो तमाम मिल जाते हैं लेकिन किसी के प्रेम में जीना बहुत मुशि्कल होता है। तभी प्रेम को निः स्वार्थ कहा गया है।
प्यार को प्रोजेक्ट करने का श्रेय हमारी फिल्मों को ज्यादा दिया जा सकता है। प्यार की पींगे बढ़ाते प्रेमी-प्रेमिका के संवाद हमें लुभाते हैं... हम उनकी तरह बनने की कोशिश करने लगते हैं... आज तो रील्स का जमाना है और हर कोई खुद को हीरो और हीरोइन समझ रहा है.... सो प्यार महिमामंडित हो रहा है। बच्चों का बचपन तक खो गया है... बचपन का प्यार भूल नहीं जाना... गीत गा रहा है... जिस उम्र में हमें कुछ पता नहीं होता... उसे भी इस कथित प्यार ने नहीं छोड़ा है।
इस आकर्षण से बंधे युवा-युवतियां प्यार के बुखार में गोते लगा रहे हैं। लिव इन इसी प्यार का अगला कदम है... शायद इसी से समस्याएं भी हो रही हैं। प्यार पाने के जतन किए जा रहे हैं.... झूठ बोले जा रहे हैं... तिकड़म लगाई जा रही है... यानी संबंधों में समस्याओं का अंबार है... यही तो प्यार है...! जहां खोने का डर है.. वही प्यार है...! प्यार में बिछड़े तो तुम नहीं तो और सही... का जज्बा... है... तो नफरत में उस पर हमला करने की सोच रखना भी बन सकता है....! कभी-कभी यह सोच सच भी साबित हो जाती है और हो रही है...।
दूसरी ओर प्रेम... कहता है कि जिससे प्यार करो... उसे खुला छोड़ दो... क्योंकि प्रेम किसी को बांध नहीं सकता... किसी को अपना बनाने के लिए पिंजरे की जरूरत उसे होती है, जिसे कोई मोह हो... और मोह....को जो प्रेम का नाम दे... वह सही नहीं है... वह प्यार हो सकता है क्योंकि मोह तो उलझन है... और प्रेम आनंद। मोह बोले तो आसक्ति... और प्रेम वह फूल होता है... जिसे पोषण देने के लिए कई बार खुद को कष्ट भी देना पड़ता है लेकिन इसमें भी खुशी का अहसास होता है। जैसे कबी खुद को भूखे रखकर किसी को खाना खिलाने का जो सुख मिलता है... वही प्रेम है...! प्रेम हर मैं... बोले तो अहम को छोड़ देता है और मोह... उसे पकड़ लेता है।
शारीरिक तौर पर किसी के साथ #1EK होना आसान है... लेकिन अगले ही पल यह एकत्व खत्म हो जाता है और आप अपने को अलग पाते हैं। बात जब एकाकार की आती है तो... हमें भौतिकता से परे जाना होगा। यही प्रेम है...। तभी उसे अनंत... असीमित कहा गया है। यही संपूर्णता है...!
Dr. Shyam Preeti
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