आइए #1EK शपथ लें... हम बदलेंगे अपना नजरिया

ऊपर वाले बोले तो ईश्वर ने हमको दो हाथ, दो पैर, दो कान, दो आंखें और #1EK मुख दिया है... रक्त का रंग भी लाल है... इस लिहाज से हम सभी सहोदर हैं। हालांकि बहुत से ऐसे भी लोग होते हैं जो किन्हीं विसंगतियों की वजह से ऐसे नहीं होते... लेकिन फिर भी समाज के वे भी अंग हैं। यही विविधता... हमें ईश्वर के नजदीक ले जाती है। अब सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न कि ऐसा क्या... है जिसने इंसान को इंसान से अलग कर रखा है?
इस क्या... का उत्तर है... दृषि्टकोण... बोले तो नजरिया...! जी हां... नजरिया को भी दो भागों में बांटा गया है... सकारात्मक और नकारात्मक लेकिन यही नकारात्मक किसी दूसरे के लिए सकारात्मक हो सकता है... और सकारात्मक... नकारात्मक बन जाता है... है ना गजब। यही सोच... मनुष्य को #1EK-दूसरे से जुदा करती है। इसे हर क्षेत्र में देखा और महसूस किया जा सकता है। जैसे-जैसे #1EK पीढ़ी का पाखंड समय के साथ परंपरा बन जाता है।
दूसरा उदाहरण ः राजनीति को ही ले लें... एक दल दूसरे की नीतियों की बखिया उधेड़ता नजर आता है और जब सत्ता बदल जाती है तो स्थितियां बदल जाती हैं। विरोध का तरीका दो तरह से होता है... पहला वैचारिक और दूसरा हिंसात्मक.... अब सोशल मीडिया के दौर में जगह-जगह कैमरे हैं... हर हाथ फोटोग्राफर बन चुका है... इसलिए ज्यादातर घटनाएं पकड़ में आ जाती हैं....। इनमें साफ दिखाई दे रहा है कि अराजकता के हालात क्या हैं। कभी राजस्थान... कभी पंजाब... और कभी बिहार या यूपी आदि से ऐसे वीडियो सामने आ रहे हैं कि ये तस्वीरें मानवता को मुंह चिढ़ा रही हैं। हम लोग कैसे निर्दयी हो गए हैं कि किसी की हत्या करने से भी गुरेज नहीं कर रहे... वह भी वीभत्स तरीके से....। कोई रहम नहीं... बस मार डालो और वहां से खिसको....! लोग भी वीडिया बनाते नजर आ रहे हैं लेकिन कोई किसी को बचाने की जहमत नहीं उठा रहा। बाद में वीडियो वायरल करके अपनी देश को यह बताने की कोशिश की जाती है कि यह गलत है। राजनीतिक दृष्टिकोण से इसे कोई फायदा उठाने वाला कहेगा तो कोई मानवता के हत्यारों को सजा दिलाने की मुहिम के तौर पर इन्हें ले रहा है... लेकिन सच यही है कि ऐसे दृश्य रूह को कंपा रहे हैं। हैदराबाद में एक बच्चे को कुत्ते मार डालते हैं... वीडियो बनाया जाता है... वायरल किया जाता है लेकिन जो इसे बना रहा था... वह बच्चे को बचाने का जतन नहीं करता। कहां चली गई उस व्यक्ति की मानवता की भावना। ऐसे व्यक्ति क्या चेतना शून्य हो गए हैं कि उन्हें किसी की जान बचाने से ज्यादा वीडियो बनाना ज्यादा रुचिकर लगता है अथवा अपना काम बनता... भाड़ में जनता.... उनका ब्रह्म वाक्य है। गुस्ताखी माफ...! पहले वीडियो नहीं मानवता को बचाने की कोशिश करें... आदमी की सोच कहां जा रही है। मुझे याद आती है #1EK कहानी...। यह अमेरिका के ‘डेली मेल’ में काम करने वाले केविन कार्टर से जुड़ी है। उन्हें भुखमरी के शिकार सूडान में चल रहे विद्रोही आंदोलन के बारे में जानकारी मिली तो वह अवकाश लेकर सूडान पहुंच गए। वहां के हालात की तस्वीर लेते समय अचानक एक जगह पर झाड़ियों से कुछ हिलने की आवाज आई। वह तुरंत वहां पहुंचे तो उन्होंने देखा कि एक छोटी-सी बच्ची अधमरी हालत में है।
उन्होंने महसूस किया कि उस बच्ची में इतनी भी ताकत नहीं कि वह चल सके। वह रेंग-रेंग कर फीडर सेंटर तक जाने की कोशिश कर रही थी तभी उनकी एक उसके पीछे बैठे गिद्ध पर पड़ी। वह उसे अपना शिकार समझ रहा था। #1EK बेहतीन फोटो... दिखी और कार्टर ने इस दृश्य को कैमरे में कैद कर लिया। हालांकि, बाद में उन्होंने उस गिद्ध को भगा दिया था। इस तस्वीर को ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने 26 मार्च, 1993 को प्रकाशित किया तो यह ‘अफ्रीकी पीड़ा’ की आइकॉन बन गई। इसके बाद यह तकरीबन हर अखबार की सुर्खियां बनीं। इसी तस्वीर की बदौलत कार्टर को पत्रकारिता का सबसे बड़ा पुरस्कार पुलित्जर पुरस्कार दिलाया। वर्ष था 1994 और महीना था अप्रैल। इस सफलता से कार्टर बहुत खुश थे लेकिन नैतिकता के प्रश्न पर लोगों ने कार्टर को घेरा। कहा कि कार्टर ने फोटो को खींचना ज्यादा जरूरी समझा बजाय उस बच्ची को बचाने के। इससे कार्टर काफी परेशान हुए और अवसाद इतना बढ़ गया कि उन्होंने आत्महत्या कर ली थी।
तारीख थी 27 जुलाई, 1994... उन्होंने #1EK पेड़ के नीचे, जहां वह अक्सर बचपन में खेला करते थे, अपनी गाड़ी में कार्बन-मोनोऑक्साइड जहर से आत्महत्या कर ली। उन्होंने सुसाइड नोट पर लिखा था- ‘वह काफी परेशान हैं। उन्हें लाशें, भुखमरी, घायल बच्चे, दर्द की तस्वीरें रह-रह कर परेशान करती हैं। कहा जाता है कि बाद में उन पर जिंदगी का यह दर्द, खुशियों पर इतना हावी हो गया है कि अब कोई खुशी रही ही नहीं!’ इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जिस फोटो ने उन्हें पत्रकारिता की दुनिया की सबसे बड़ा पुस्कार दिलाया... खुशी दिलाई... उसी की वजह से वह अवसाद में चल गए थे। इससे समझा जा सकता है कि जैसा नजरिया वैसा संसार...! सड़क पर #1EK हादसा होता है... कोई मर जाता है और कोई घायल पड़ा होता है... जो भी व्यक्ति वहां पर पहुंचता है... तो पुलिस वाले को उनके दर्द से कोई मतलब नहीं होता... उसे कानूनी कार्रवाई करनी पड़ती है। उसके लिए सामने #1EK केस पड़ा होता है। डॉक्टर को घायल मरीज और मरने वाला शव बोले तो बॉडी दिखता है... घायल को स्टेचर और बाद में बेड मिलता है और मरने वाले को पोस्टमार्टम हाउस का रास्ता दिखा दिया जाता है। अखबार वाला या मीडिया वाला पहुंचता है तो उसके लिए यह केवल खबर होती है। घटनाक्रम क्या हुआ... हादसे किस व्यक्ति के साथ हुआ.. उसका प्रोफाइल क्या था... इस बारे में जानने के लिए वह परेशान रहता है क्योंकि खबर में कुछ भी छूट गया तो उसकी क्लास पक्की और राहगीर... कोई रुक जाता है... कोई पूछताछ करता है। कहीं किसी का परिचित निकल आया तो वह फोन करता है। इसे सामाजिकता कह सकते हैं। यह सब नजरिये का ही फर्क है। जैसे इसी घटनाक्रम पर मरने वाले और घायलों के रिश्तेदारों को बीमा एजेंट फायदा गिनाता भी दिख सकता है। कहीं मरने वाला बेवड़ा जैसी बुरी आदतों का शिकार हुआ तो... घर वालों को सरकारी नौकरी की संभावनाओं पर भी चर्चा करके लोग दिख जाते हैं। यही अजब-गजब नजरिये दिखते हैं। कहते हैं कि यदि नजरिया बेहतरीन हो तो हर समस्या के समाधान का जरिया भी निकल आता है। कहीं पर यदि मानवता शर्मसार होती दिखे तो थोड़ी जागरूकता दिखाएं... फोन पर वीडियो बनाने से बेहतर है मदद करना...! Dr. Shyam Preeti

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