गया तीर-कमान... अब आगे का क्या है प्लान
महाशिवरात्रि से #1EK दिन पहले... ऐसे इत्तफाक की किसी ने शायद कल्पना भी न की होगी...! शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे की सियासी विरासत पर दावा करने वाले उद्धव ठाकरे गुट पर बिजली गिर पड़ी है। दरअसल, चुनाव आयोग ने चुनाव शिवसेना पर नियंत्रण का हक एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाले गुट के हाथों में दे दिया है। अब उद्धव ठाकरे हाथ मल रहे हैं....क्योंकि शिवसेना का नाम और निशान उनके हाथों से फिसल गए हैं। नए फैसले के अनुसार, एकनाथ शिंदे का गुट अब से शिवसेना कहलाएगा और उनका चुनाव चिह्न तीर-कमान होगा।
दरअसल, चुनाव आयोग ने चुनाव चिह्न (रिजर्वेशन एंड अलॉटमेंट) ऑर्डर 1968 के आधार पर यह फैसला लिया है। वह इसका फैसला करने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र है कि चुनाव चिह्न किसे दिया जाए। इस फैसले पर उद्धव के समर्थकों में गुस्सा है। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि शिवसेना की स्थापना 19 जून 1966 को कार्टूनिस्ट और बाद में राजनीतिज्ञ के रूप में चर्चित हुए बाला साहेब ठाकरे ने की थी। तब इस दल का प्रतीक चिह्न बाघ हुआ करता था। दो वर्ष बाद 1968 में उन्होंने शिवसेना को राजनीतिक पार्टी के तौर पर पंजीकृत करवाया। इसके बाद 1971 के लोकसभा चुनाव में शिवसेना के उम्मीदवार मैदान में उतरे लेकिन प्रभाव नहीं छोड़ सके। तब से 1984 तक शिवसेना के हिस्से खजूर का पेड़, ढाल-तलवार और रेल का इंजन जैसे चुनाव चिह्न रहे। 1984 में शिवसेना बीजेपी के चुनाल चिह्न कमल के फूल पर भी चुनाव लड़ी लेकिन इसके बाद 1985 में मुंबई के नगर निकाय चुनाव में शिवसेना को पहली बार तीर-कमान का चुनाव चिह्न मिला था। सही मायने में शिवसेना की पहचान तब तेजी से बनी।
इसके बाद वर्ष 1989 के लोकसभा चुनाव में पहली बार शिवसेना ने भाजपा के साथ गठबंधन किया। चुनाव में उसके चार उम्मीदवार जीतकर संसद पहुंचे। फिर 1990 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में शिवसेना ने भाजपा के साथ गठबंधन किया। यह गठजोड़ बेहतरीन चल रहा था लेकिन वर्ष 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद दोनों दलों के दिलों खटास आ गई। वजह थी मुख्यमंत्री का पद। विवाद बढ़ा तो गठबंधन टूट गया। इसके बाद शिवसेना ने पैतरा दिखाते हुए कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर बनाया महाविकास अघाड़ी गठबंधन और बनी सरकार में उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र में शिवसेना के पहले मुख्यमंत्री बन गए। बाल ठाकरे जहां किंग मेकर की भूमिका में रहना पसंद करते थे वहीं उद्धव किंग बनकर खुश हो गए लेकिन उनकी यह खुशी ज्यादा दिन नहीं चली और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद भाजपा ने राजनीति उन्हें सिखाई... और एकनाथ शिंदे के साथ महाराष्ट्र में सरकार बना ली। यह उद्धव के लिए बड़ा झटका था। वह सुप्रीम कोर्ट चल गए तो जवाब मिला... चुनाव आयोग से बात करें। इसके बाद चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे को शिवसेना का अगुवा बताया तो हल्ला मचना स्वाभाविक था। चुनाव आयोग के फैसले पर आक्रामक रुख में उद्धव की शिवसेना, कहा- यह फिक्स मैच है। चुनाव आयोग ने बीएमसी (बृहन्मुंबई नगर निगम) के महत्वपूर्ण चुनाव से ऐन पहले उद्धव ठाकरे की शिवसेना को झटका दिया है। चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे गुट को बाल ठाकरे की पार्टी का चुनाव चिह्न धनुष और तीर आवंटित करते हुए उसे असली शिवसेना के रूप में मान्यता दी है। ऐसा नहीं है शिवसेना में पहली बार कोई बगावत हुई थी। इससे पहले भी तीन बार पार्टी में बगावत हुई लेकिन, 57 साल में यह पहली बार होगा जब बिना ठाकरे सरनेम का कोई नेता पार्टी का प्रमुख बनेगा।
चलिए... पुराने राजनीति के पन्ने पलटते हैं... सबसे पहले शिवसेना में विद्रोह छगन भुजबल ने किया था। यह कहानी तब की है जब महाराष्ट्र की राजनीति में बाला साहेब ठाकरे का दबदबा हुआ करता था। तब छगन भुजबल दबंग ओबीसी नेता के तौर पर पहचाने जाते थे। वह बाल ठाकरे के सबसे करीबी नेताओं में से एक थे। साल 1985 में विधानसभा चुनाव के बाद शिवसेना सबसे बड़ा विरोधी दल बनकर उभरी। जब नेता प्रतिपक्ष चुनने की बारी आई तो भुजबल को लगा कि ठाकरे साहेब उन्हें मनोनीत करेंगे लेकिन उनकी निगाहों में मनोहर जोशी काबिल निकले। नतीजा.. विवाद शुरू हो गया। भुजबल को प्रदेश की राजनीति से हटाकर शहर की राजनीति तक सीमित कर मुंबई का मेयर बनाया गया। इस बीच केंद्र में राष्ट्रीय मोर्चा की गठबंधन सरकार आ गई जिसने मंडल आयोग की पिछड़ा आरक्षण पर की गईं सिफारिशें लागू करना तय किया। महाराष्ट्र में भाजपा इसके पक्ष में थी तो शिवसेना विरोध में। भुजबल ने मार्च 1991 में सार्वजनिक तौर पर मनोहर जोशी के खिलाफ बयान दिया। यह भी साफ कर दिया कि अब वह मुंबई का दोबारा मेयर नहीं बनना चाहते हैं। उन्हें विपक्ष का नेता बनाया जाना चाहिए। ये बातें सुनकर बाल ठाकरे ने जोशी और भुजबल को मातोश्री बुलाया और समझौते की कोशिश की, लेकिन नतीजा शून्य रहा।
इसके बाद पांच दिसंबर 1991 को भुजबल ने ठाकरे के खिलाफ विद्रोह कर दिया। आठ शिवसेना के विधायकों ने विधानसभा स्पीकर को खत सौंपा कि वे शिवसेना-बी नाम का अलग से गुट बना रहे हैं और मूल शिवसेना से खुद को अलग कर रहे हैं। बाद में उन्होंने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस की सदस्यता ले ली। यग ठाकरे परिवार को पहला बड़ा झटका था।
गुस्ताखी माफ! भुजबल के बाद नारायण राणे शिवसेना के अगले विलेन बने। साल था 2005। इससे पहले चेंबूर में राणे शिवसेना के पहले शाखा प्रमुख बने और फिर 1985 से 1990 तक शिवसेना के वह कॉरपोरेटर रहे। साल 1990 में वो पहली बार शिवसेना से विधायक बने। इसके साथ ही वह विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष भी बने। राणे का कद शिवसेना में तब और बढ़ गया जब छगन भुजबल ने शिवसेना छोड़ दी। साल 1996 में शिवसेना-भाजपा गठबंधन सरकार में नारायण राणे को राजस्व मंत्री बनाया गया। इसके बाद मनोहर जोशी के मुख्यमंत्री पद से हटने पर राणे को सीएम की कुर्सी पर बैठने का मौका मिला। एक फरवरी 1999 को शिवसेना-बीजेपी के गठबंधन वाली सरकार में नारायण राणे मुख्यमंत्री बने। हालांकि, ये खुशी चंद दिनों की थी। जब उद्धव ठाकरे को शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया तो राणे के सुरों में बगावत दिखने लगे। राणे ने उद्धव की प्रशासनिक योग्यता और नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाए। इसके बाद नारायण राणे ने 10 शिवसेना विधायकों के साथ शिवसेना छोड़ दी और फिर तीन जुलाई 2005 को कांग्रेस में शामिल हो गए।
इसके बाद शिवसेना को सबसे तगड़ा झटका राज ठाकरे ने दिया। बाल ठाकरे के भतीजे और उद्धव ठाकरे के भाई राज ठाकरे ने साल 2005 में शिवसेना से नाता तोड़कर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन किया। वह पहले शिवसैनिक थे, जिन्होंने पार्टी छोड़ने के बाद नई पार्टी बनाई। लेकिन अब एकनाथ शिंदे ने शिवसेना नहीं छोड़ी बलि्क शिवसेना पर ही कब्जा जमा लिया है और उद्धव ठाकरे को ठेंगा दिखा दिया है।
Dr. Shyam Preeti
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