हर हथियार से ज्यादा ताकतवर #1EK शब्द हैं...
#1EK मुहावरा है... चिराग तले अंधेरा... महज तीन शब्दों को पढ़ते ही आपके दिमाग में क्या बात आएगी... निश्चित रूप से ..... बुराई न दिखाई देना लेकिन इस खाली.... स्थान में ‘अपनी’ शब्द छिपा रहता है। ठीक इसी तरह हम किसी की भी आलोचना करने के लिए स्वतंत्र हैं लेकिन पहले खुद को ठोक-बजाकर देख लेना चाहिए। इस मुहावरे के प्रयोग पर कहा जाता है कि यदि किसी को अपनी बुराई नही दिख रही हो और वह किसी और को गलत बताता जा रहा है तो यह कहा जाता है की इसके तो चिराग तले अंधेरा है...!
इस भूमिका को लिखने के लिए मेरा अभिप्राय हाल ही में वायरल हुए #1EK वीडियो के संबंध में है। #1EK पुस्तक है मनु स्मृति जिसे पहले भी जलाया गया है और इस बार नई स्टाइल से इसे न सिर्फ जलाया गया बल्कि उससे सिगरेट भी सुलगाई गई... और तो और उसे जलाकर मुर्गा पकाया गया.... इस जीव को किसने किसने खाया... यह तो पता नहीं चल सका लेकिन वायरल वीडियो ने यह कृत्य करने वाली युवती कथित नाम प्रिया दास बताया जाता है, वह जरूर चर्चा में आ गईं....!
उनका वक्तव्य पढ़ा- "मनुस्मृति को जलाना सिर्फ सांकेतिक और ये एक तत्कालीन घटना है, उसकी नींव और उद्देश्य बहुत पहले ही बाबा साहेब ने रख दिया था, इसको जलाना किसी एक व्यक्ति के खिलाफ नहीं है बल्कि मेरा मकसद घटिया, पाखंडवाद और ढोंग के विचारों पर वार करना है।" इससे साफ हो जाता है कि मनु स्मृति को जलाना कोई नई घटना नहीं है... गुस्ताखी माफ... विरोध जताने के लिए हिंदुस्तान में ऐसी घटनाएं फिलहाल आम हो चली हैं।
जैसे अभी हाल में एक महानुभाव नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने रामचरित मानस की चौपाई पर विवादित बयान दिया था... जबकि वह शायद भूल गए थे कि जहां न पहुंचे रवि... वहां पहुंचे कवि...! इसी प्रकार यह प्रसंग भी है। प्रिया दास ने यह भी बयान दिया था कि यह किताब बिल्कुल भी सही नहीं, किताब का अर्थ है उससे शिक्षा मिलना, ज्ञान मिलना है...! और सबसे मजेदार लेकिन गंभीर बात यह है कि जिस पुस्तक से हमें ज्ञान मिलता है, उसी को जलाकर फिर उससे सिगरेट सुलगाकर वह समाज को क्या संदेश दे रही हैं?
हम सभी को बताया गया है कि सिगरेट और बीड़ी कैंसर के वाहक हैं.... ये सेहत के दुश्मन हैं लेकिन इसके बावजूद हममें से तमाम लोग इनका इस्तेमाल धड़ल्ले से करते हैं...।
जब यह स्पष्ट है कि ये सेहत के दुश्मन हैं तो फिर क्यों इनकी बिक्री हो रही है? वजह है व्यापार... समाज में अपना रुतबा दिखाने का जरिया... या खुद को दूसरों से अलग दिखाने का जज्बा... उत्तर इस सवाल का जो भी हो... आपकी निगाह में लेकिन साहित्य को सदा से समृद्ध रहा है। यह बात और है कि उसे जिस नजरिये से देखा जाता है, वह अच्छा या बुरा लगने लगता है....!
जैसे प्राचीन उज्जैन में बड़े प्रतापी राजा भर्तृहरि की कहानी की चर्चा #1EK वरिष्ठ साथी वेद प्रकाश त्रिपाठी जी ने मुझसे की थी। उनके बोलने का अंदाज ही था कि शायद मुझे यह आज तक याद है। राजा भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला पर आशक्त थे... सो उन्होंने उसकी सुंदरता को आत्मसात करते हुए ‘श्रृंगार शतक’ की रचना की। इसमें उन्होंने नारी की खूबसूरती का बखान किया था लेकिन समय बदला और उन्हें पता चला कि पिंगला उन्हें धोखा दे रही है तो उनका हृदय टूट गया।
दरअसल, कहानी इस प्रकार है...तपस्वी गुरु गोरखनाथ का उनके दरबार में आगमन हुआ। आदर सत्कार से वह प्रसन्न हुए तो उन्होंने राजा को #1EK फल दिया और कहा कि इसे वह खा ले तो ताउम्र जवान बने रहेंगे। राजा ने सोचा कि वह इसे पिंगला को देंगे तो वह सदैव जवान और खूबसूरत बनी रहेगी। यह सोचकर वह फल पिंगला को दे देते हैं लेकिन पिंगला तो सेनापति से प्रेम करती है। वह उस फल को उस सौंप देती है। सेनापति भी ईमानदार नहीं होता... वह वेश्या से प्रेम करता है तो वह चमत्कारी फल उस वेश्या को दे देता है। वेश्या सोचती है कि इस फल की जरूरत उसे नहीं राजा को है... तो फल राजा के फिर पहुंच जाता है। जब राजा को सारा वृतांत पता चलता है तो भर्तृहरि के मन में वैराग्य जाग जाता है। वह अपना संपूर्ण राज्य विक्रमादित्य को सौंपकर उज्जैन की गुफा में चले जाते हैं। फिर 12 वर्षों तक तपस्या के बाद वह ‘वैराग्य शतक’ की रचना करते हैं। यह ‘श्रृंगार शतक’ का विरोधी बताया था। इसके अलावा उन्होंने नीति शतक भी लिखा है।
‘श्रृंगार शतक’ में सांसारिक भोग की चर्चा है तो ‘वैराग्य शतक’ वैराग्य की... रजनीश बोले तो ओशो लिखते हैं- संभोग से समाधि की ओर... उनकी भी आलोचना हुई और उनके चाहने वाले भी खूब हैं। लेखन की शैली का जादू कुछ ऐसा ही है। किसी को अपने मतलब का लगता है तो वह वाह-वाह करता है और न समझ आए तो... आलोचना करना अपना अधिकार समझता है। यही तो स्वतंत्रता है...!
सच यही है कि किसी के लेखन और उस पर हमारी सोच का प्रभाव हमारी सोच के अनुसार ही हो जाता है। किसी को कोई विचार फिजूल लगता है तो किसी को कोई....! जैसे.... विश्वास और अंधविश्वास में बारीक सा अंतर है लेकिन किसी पर विश्वास तो करना ही पड़ता है... लेकिन जब वह हमें धोखा दे देता है तो हम कहते हैं कि हम उस पर अंधविश्वास कर रहे थे। जबकि सच यही है कि विश्वास तो हमेशा से अंधा ही रहा है लेकिन सच भी यही है कि वही हमें रोशनी भी दिखाता है...!
इसलिए कुछ भी कहने से पहले सोचिए जरूर... क्योंकि हर हथियार से ज्यादा ताकतवर शब्द हैं... जान लें कि शब्दों को ब्रह्म कहा गया है और ब्रह्म तो #1EK है और हमारे पास जीवन भी #1EK है। जानवर और इंसान में बस #1EK पर्दे का अंतर हुआ करता था, अब सोशल मीडिया के दौर में वह भी अब खत्म हो गया है। इसे आप किस नजरिए से देखेंगे, यह आप पर निर्भर करता है। इसी प्रकार भाषा कोई भी हो उसके वर्णो से ही हर #1EK शब्द बनता है, पीने से गालियोंका निर्माण होता है और इन्हीं से ज्ञान की बातें भी निकलती है। ऐसे में हम क्या भाषा को भी गलत कहेंगे। हमें अपना नजरिया बदलने की जरूरत है बुराई तो सभी में है लेकिन हमें अच्छाई पर फोकस करना होगा।
Dr. Shyam Preeti
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