जब #1EKBharat है हमारा घर तो काहे चाहिए अलग खालिस्तान... ?

मेरा सवाल है... जब #1EKBharat हमारा घर है तो कुछ सिख भाइयों को काहे अलग खालिस्तान चाहिए... ? इससे पहले खालसा की बात... इसका अर्थ है पवित्रता का मार्ग और खालिस्तान आंदोलन के नाम पर कितनों का खून बहा या बहाया जा चुका है... सच यही है कि खून तो किसी का भी बहे... वह लाल ही रहता है...!
जहां तक मैंने पढ़ा है... खालसा पंथ धारण करने वाला प्रत्येक सिख पवित्रता के मार्ग पर चलता है। खालसा पंथ का जन्म 1699 ईसवीं में वैशाखी के दिन हुआ था। इसकी स्थापना गुरु गोबिंद सिंह जी ने की थी। उन्होंने सिखों के लिए पांच चीजें अनिवार्य की थीं - केश, कड़ा, कृपाण, कंघा और कच्छा। इनके बिना खालसा वेश पूर्ण नहीं माना जाता। गुरु गोबिंद सिंह ने अपने पिता गुरु तेग बहादुर के बाद मुगल सम्राट औरंगजेब के इस्लामी शरीयत शासन के दौरान खालसा परंपरा शुरू की थी। उन्होंने निर्दोषों को धार्मिक उत्पीड़न से बचाने के कर्तव्य के साथ खालसा को एक योद्धा के रूप में बनाया और शुरू किया। पंज प्यारे की कथा के अनुसार, दयाराम ने सबसे पहले अपना सिर गुरु को सौंप दिया। तब दयाराम दया सिंह के नाम से जाने गए। इसके बाद धर्मदास (धरम सिंह), हिम्मत राय (हिम्मत सिंह), मोहकम चंद (मोहकम सिंह) और फिर साहिब चंद ने अपना सिर गुरु को सौंप दिया था। इस तरह पंज प्यारे मिले, जिन्होंने बाद में अपनी निष्ठा और समर्पण भाव से खालसा पंथ का जन्म दिया। अब आगे की कहानी... जिन हिंदुओं को रक्षा के लिए खालसा पंथ बना... समय ने उन्हें एक-दूसरे का खून का प्यासा भी बनाया.. लेकिन ये चंद लोग थे.... हैं... जो विवादों को हवा दे रहे हैं। इनमें सबसे ज्यादा कनाडा और यूरोप में रहने वाले अलगाववादी 40 साल से भी ज्यादा समय से खालिस्तान की मांग कर रहे हैं। गौरतलब है कि वर्ष 1979 में जगजीत सिंह चौहान ने भारत से लंदन जाकर खालिस्तान का प्रस्ताव रखा था और इसके बाद इस सोच ने तमाम सिखों के जेहन में घर बनाना शुरू कर दिया, जिसने बहुत से लोगों को बेघर भी कर दिया था। इन लोगों में ज्यादातर बेगुनाह थे। मेरी राय में बेगुनाह वे लोग होते हैं... जो आम कहलाते हैं... इनमें वे खास भी होते हैं... जो आम से साथ पिस जाते हैं। कहीं पर पढ़ा... जानेमाने पत्रकार खुशवंत सिंह का कहना था कि भिंडरांवाला हर सिख को 32 हिंदुओं की हत्या करने को उकसाता था। उसका कहना था कि इससे सिखों की समस्या का हल हमेशा के लिए हो जाएगा। पहले सवाल भिंडरवाला कौन...? इस शख्स का पूरा नाम था जरनैल सिंह... जब वो सिख धर्म और ग्रंथों की शिक्षा देने वाली संस्था 'दमदमी टकसाल' का अध्यक्ष चुना गया तो उसके नाम के साथ भिंडरावाले जुड़ गया था। 13 अप्रैल 1978 को अकाली कार्यकर्ताओं और निरंकारियों के बीच हुई हिंसक झड़प में 13 अकाली कार्यकर्ताओं की जान चली गई। इसके बाद भिंडरावाले ने कड़ा रुख अपनाया। नतीजा... हिंसक घटनाएं बढ़ने लगीं। हिंसा बोले तो खूनखराबा... वर्ष 1981 में पंजाब केसरी के संस्थापक और संपादक लाला जगत नारायण की हत्या हो गई। अप्रैल 1983 में पंजाब पुलिस के डीआईजी एएस अटवाल, हरबंस लाल खन्ना (भाजपा नेता), दीपक धवन (सीपीआई नेता), वीरेंद्र (सुभाष घडवाल धर्मेंद्र के भाई) आदि को मार दिया गया। इन खास व्यकि्तयों के साथ बसों को रुकवाकर हिंदुओं की पहचान करके उनकी हत्या की जाने लगी। कहा जाता है कि ये सिख आतंकवादी हिंदुओं के प्रति अपनी नफरत खून बहाकर प्रदर्शित किया करते थे। समय के साथ यह नफरत बढ़ने लगी और खून बहता रहा। मरने वालों की संख्या पर मतभिन्नता हो सकती है लेकिन संख्या सैकड़ों में रही... यह स्पष्ट है। कहते हैं कि जिसने भी भिंडरांवाले का विरोध किया वह उसकी हिट लिस्ट में आ गया लेकिन समय किसी का सगा नहीं रहा है। भिंडरांवाले सुरक्षाबलों के निशाने पर आ गया और तब उनसे बचने के लिए उसने स्वर्ण मंदिर की शरण ली। करीब दो साल तक सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया। इसी दौरान भिंडरांवाले स्वर्ण मंदिर परिसर में बने अकाल तख्त पर काबिज हो गया। उसे पकड़ने के लिए सेना ने कई कवायद की लेकिन सफलता नहीं मिली। अंततः प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के आदेश पर स्वर्ण मंदिर खाली कराने के लिए ऑपरेशन ब्लूस्टार शुरू हुआ। एक से तीन जून 1984 के बीच पंजाब में रेल सड़क और हवाई सेवा बंद कर दी गईं। स्वर्ण मंदिर की पानी और बिजली की सप्लाई बंद कर दी गई। अमृतसर में कर्फ्यू लगा दिया गया। सड़कों पर सीआरपीएफ गश्त कर रही थी। स्वर्ण मंदिर में आने-जाने वाले सभी एंट्री और एग्जिट पॉइंट सील कर दिए गए। इसके बाद पांच जून को रात करीब 10:30 बजे ऑपरेशन का पहला चरण शुरू किया गया। स्वर्ण मंदिर परिसर के अंदर की इमारतों पर आगे से हमला शुरू किया गया। इस दौरान खालिस्तानी आतंकियों ने भी सेना पर खूब गोलीबारी की। एक दिन बाद जनरल केएस बरार ने टैंक की मांग की। 6 जून को टैंक परिक्रमा तक सीढ़ियों से नीचे लाए गए। गोलीबारी में अकाल तख्त के भवन को भारी नुकसान हुआ। कुछ घंटों बाद ही भिंडरांवाले और उसके कमांडरों के शव बरामद कर लिए गए। सात जून तक भारतीय सेना ने परिसर पर कंट्रोल कर लिया। ऑपरेशन ब्लूस्टार 10 जून 1984 को दोपहर में समाप्त हो गया। इस पूरे ऑपरेशन के दौरान सेना के 83 जवान शहीद हुए और 249 घायल हो गए। सरकार के मुताबिक, हमले में 493 आतंकवादी और नागरिक मारे गए। इसके बाद विरोध में कैप्टन अमरिंदर सिंह सहित कई सिख नेताओं ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। खुशवंत सिंह सहित प्रमुख लेखकों ने सरकारी पुरस्कार लौटा दिए। इसके चार महीने बाद 31 अक्टूबर 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके दो सिख बॉडीगार्डों ने गोली मारकर हत्या कर दी। इस घटनाक्रम के बाद 1984 में सिख विरोधी दंगे हुए। घटनाओं में हजारों सिख मार दिए गए। नफरत की इस भड़की आग में पहले हिंदुओं का खून बहा और बाद में सिखों का लेकिन सच यही है कि लहूलुहान मानवता हुई। करीब एक साल बाद 23 जून 1985 में कनाडा में रह रहे खालिस्तान समर्थकों ने एअर इंडिया की फ्लाइट को बम रखकर उड़ा दिया। इस दौरान 329 लोगों की मौत हो गई। बब्बर खालसा के आतंकियों ने इसे भिंडरांवाले की मौत का बदला करार दिया था। इसके बाद 10 अगस्त 1986 को ऑपरेशन ब्लूस्टार को लीड करने वाले पूर्व सेना प्रमुख जनरल एएस वैद्य की पुणे में दो बाइक सवार आतंकियों ने हत्या कर दी थी। खालिस्तान कमांडो फोर्स ने इस हत्या की जिम्मेदारी ली थी। रक्तरंजित घटनाक्रम आगे भी जारी रहा। 31 अगस्त 1995 को एक सुसाइड बॉम्बर ने पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की कार के पास खुद को उड़ा लिया था। इसमें उनकी मौत हो गई थी। उन््हें आतंकवाद का सफाया करने का श्रेय दिया जाता था। हालांकि इस बीच खालिस्तान के लिए चल रहा सशस्त्र विद्रोह धीमा पड़ रहा था और आतंकवाद से जुड़े लड़ाके शांत पड़ गए। कई मारे गए और कई ने हथियार डाल दिए। खालिस्तान की मांग भारत में भले धीमी पड़ गई हो लेकिन विदेश में रहने वाले सिख समुदाय के तमाम बंदों इसे हवा देते रहे हैं और यह आज  भी जारी है। कुछ समय पूर्व पंजाब सूबे में लहराती तलवारें, हाथों में बंदूकें और लाठी-डंडे लेकर उत्पात मचाते सिख युवकों को देखकर लोग फिर पहले जैसी अराजक हालातों की आशंकाओं से सशंकित हो गए हैंं। वारिस पंजाब दे संगठन के प्रमुख अमृतपाल सिंह और उसके समर्थकों ने जो दबंगई दिखाई, उससे पंजाब में फिर हालात खराब होने की सुगबुगाहट सुनाई देने लगी थी। हालांकि केंद्र सरकार ने सख्ती करते हुए प्रभावी कदम उठाए हैं लेकिन उसे विदेशी मोर्चों पर ज्यादा मुखर होकर अपनी बात उठानी होगी। कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और यूके में खालिस्तान आंदोलन जोर पकड़े हुए हैं, यह भारत के हित में नहीं है। Dr. Shyam Preeti

Comments

Popular posts from this blog

#1EK फिल्म 'द केरल स्टोरी' ....

चर्चा का बाजार गर्म हो गया.... हिंदी का महज #1EK शब्द ‘भारत’ लिखा तो...

चंद्रयान #1EK से अब चंद्रयान-3 तक का रोमांचक सफर