जातिगत समस्या सिर्फ मानसिक है...आइए हम #1EK बने...!

बिहार में जातिगत जनगणना के साथ चर्चाएं आम हैं... कोई इसके फायदे गिना रहा और कोई इसकी आलोचना कर रहा है... लेकिन हम तो ठहरे #1EK कॉमन मैन बोले तो आम आदमी... लेकिन हमें इस नाम की पार्टी का सदस्य न समझ लीजिएगा... हम तो भारतीय हैं... लेकिन शुद्धता के फेर में पड़े बिना...! तो हम बिना लाग-लपेट अपनी बात कहने जा रहे हैं...! तो हुजूर/मोहतरमा और यदि कोई बीच का शख्स है... तो हे! अर्द्धनारीश्वर! मेरा प्रणाम स्वीकार करें। सादर निवेदन करता हूं कि आप सभी कोरोना महामारी का संकटकाल झेल चुके हैं...! किसी की नौकरी गई तो किसी की जिदंगी... किसी के अपने गए तो कोई पराये के जाने पर भी रोया... यही जिंदगी है... #1EK सांस अंदर... और #1EK सांस बाहर...; इसके बावजूद हम झंझावतों में फंसे हुए थे और हैं... या फंसाए गए थे या हैं... समझ नहीं आता। देश का हार... बोले तो बिहार... कुछ नासमझ लोगों की गलत सोच को बोलू तो.... लेकिन पहले गुस्ताखी माफ... #1EK बिहारी... सौ बीमारी... अब नजरिया बदलें... माखनचोर को हम बांके बिहारी भी कहते हैं... मन शांत हुआ ना... जवाब आपका हां ही होगा। अब आगे... इस समय जाति का मुद्दा फिर से गर्म दिखा तो मैंने भी सोचा कि इस पर चोट की जाए...! बहुत दिन पहले मैंने #1EK पोस्ट की थी... जिसमें लिखा था- असल मुद्दे दरकिनार... सबसे मजबूत जाति का खूंटा...! आज फिर यही सच दिख रहा है लेकिन...जरा ठहरें।
ऐसा पढ़ा है कि एकं सत विप्रा बहुधा वदंति...सत्य #1EK है लेकिन जानने वालों ने उसे कई ढंग से कहा है तो जाति शब्द की पहले बात करता हूं... जाति बोले तो शब्द से यह स्त्रीलिंग है... अर्थों की बात करें तो वंश, कुल, जन्म, उत्पत्ति आदि हैं... इनमें कुछ पुलि्लंग भी है.. यानी घालमेल शुरू से है...! अब दूसरे शब्दों में बात करें तो मनुष्यों के अंतर्विवाही समूह या समूहों के योग को जाति कहा जा सकता है। यह #1EK सामान्य नाम हो सकता है, जिसकी सदस्यता अर्जित न होकर जन्मना प्राप्त होती है। कुछ लोग अपनी जाति को लेकर गर्व की अनुभूति करते हैं तो कुछ लोग इसे कोसते हैं। साफ कहूं तो मु
झ नाचीज को यह महज नजरिये का खेल ही लगता है। जैसे मैंने कभी पोस्ट किया था- जी की सत्ता बनत दिखात लोग ओइ बरपै झुक जात... सरल शब्दों में कहूं तो अपना काम बनता की सोच... अब स्पष्ट रूप से कहूं तो यही सबसे बड़ी हिंसा है लेकिन हम तो अहिंसा की बात करते-करते जाने-अनजाने कितनों का दिल दुखाते हैं, इसका कभी भान नहीं करते... यह सच है, लेकिन मानेगा कौन? जाति का खूंटा भी ऐसा ही समाज में गड़ा है। कोई इसके नाम पर गर्व की अनुभूति से भर जाता है और कोई खुद ही शर्माता है...! इस #1EK बुड़बक की बातों पर यदि आप गंभीर हैं तो आपका आभार...! बिहार में जातिगत जनगणना में जो सूची मैंने पढ़ी... उससे लगता है कि अब जाति का नाम खत्म हो जाएगा और सबको #1EK नंबर मिल जाएगा.... बल्कि मिल गया है। यहां पर मेरा सवाल है कि कोड नंबर #1EK जो सबसे पहले है... वह जाति बड़ी है अथवा जो पीछे से जो जाति का कोड नंबर #1EK है, वह सर्वेसर्वा होगी? बीच वालों की भी पहचान भी कोड नंबरों से होगी। इससे क्या जाति वैमनस्य खत्म हो जाएगा? लेकिन पहले जातिगत सर्वे पर चर्चा.... बिहार में अब यही कोड लोगों की जाति की पोल खोलेगा। जातियों के कोड की संख्या 214 है और यह जो 215 नंबर है... वह अनंत... बोले तो ‘अन्य’ के नाम से है... यानी यह सूची भविष्य में और लंबी हो सकती है। मुख्य कोड 214 तक ही हैं।
गजब है ना.. यहां पर ध्यान देने वाली बात... यह दूसरी सूची का प्रताप है। पहली सूची में अगरिया जाति कोड के आधार पर पहले नंबर पर थी और अघोरी का नंबर दो था लेकिन बाद में नई सूची में अघोरी को नंबर #1EK कोड दिया गया... कुछ बुझावा... सूची में कोई कभी भी ऊपर और नीचे किया जा सकता है... यही समय चक्र है.... कुछ भी हो सकता है। खैर, सौ नंबर पर नागर बिरादरी है और दोहरे शतक का कोड... क्षमा कीजिएगा हरि, मेहतर, भंगी बिरादरी के नाम है। 150 कोड मलिक (मुस्लिम) को दिया गया है। #1EK बिरादरी सूत्रधार भी है, जिसका कोड 189 है। ट्रासजेंडर को 22 नंबर कोड दिया गया है और 6 नंबर पर असुर, अगरिया का नाम है। हलालखोर का नंबर 201 है। अन्य जाति अपना नंबर देखने के लिए इंटरनेट के सर्च इंजन पर उंगली करने के लिए स्वतंत्र हैं।
वैसे... #1EK बात गंभीरता से कहता हूं कि आपकी #1EK अंगुली किसी को सत्ता दिला सकती है तो किसी को उसकी औकात भी दिखा सकती है... यह मत भूलिएगा... यदि आप मेरी नजर से देखेंगे तो आपकी जाति केवल मतदाता है... क्योंकि आप वोट देने के लिए बने हैं और जो वोट लेता है... वह कहलाता है नेता... नेता बोले तो नेतृत्व करने वाला लेकिन यहां दसवीं फेल भी नेता हो सकता है और आईआईटी से पास आउट भी लेकिन नेता पढ़ा हो या ना हो लेकिन कढ़ा जरूर होना चाहिए...! अब फिर से मुद्दे की बात... जाति केवल मतदाताओं बोले तो जनता की होती है, क्योंकि उन्हें बांटना आसान होता है... अंग्रेजों ने इस सीख को कागज पर उतारकर कभी कहा था फूटो और राज करो... और आज भी यह अक्षरशः सही है। साइंस की बात करेंगे तो एक जाति में बोले तो सम गोत्र में विवाह वर्जित है लेकिन साथ तो हम सभी को रहना है तो जो हमारे लिए बेहतर हो... उसे सही नजरिये से क्यों न किया जाए। जैसे... इस समय कई संगठन जातिवाद छोड़ो केवल हिंदू बनो की बात कह रहे हैं लेकिन जाति तो हर धर्म या कथित रूप से पंथों में है। हिंदू धर्म तो वैसे भी सनातन माना जाता है... केवल इसी में किसी प्रकार की बंदिश नहीं है... पूजा किसनी करनी है... नहीं करनी है... पूरी स्वतंत्रता है।
अब #1EK छोटी से कहानी सुनाता हूं... कहानी को घटनाक्रम भी कह सकते हैं। केवल शब्दों का भेद है... जैसे गुस्ताखी माफ.... जाति का #1EK नाम भी हो तो भी वर्ग अलग-अलग हो सकते हैं और जाति विशेष का काम यदि दूसरी बिरादरी वाला करने लगे तो उसे कई बार दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है। आसपास नजर घुमाकर देखिए... ऐसे कई घटनाक्रम आपको दिख जाएंगे। जैसे- हमारे मुल्क में जूते बनाने वालों को 'मोची' कहते हैं और शुद्ध हिंदी में जाएंगे तो क्षमा कीजिएगा... 'चर्मकार' या 'चमार' लेकिन यह संबोधन अब गाली सरीखा बना दिया गया लेकिन जब इसी 'मोची' नाम को ब्रांड बनाया गया तो इसने सफलता की #1EK नई कहानी रच दी। वर्ष 2000 में बंगलुरू से शुरू हुआ यह ब्रांड आज नामचीन हैं।
अब इसके विपरीत दूसरी कहानी... उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर की... घटना है जनवरी 2021 की... #1EK दुकानदार फुटपाथ पर जूते बेच रहा था... नाम था नासिर... और जूते पर ब्रांड का नाम लिखा था 'ठाकुर'... फिर क्या था जातिसूचक शब्द लिखे होने की शिकायत पर थाना गुलावठी में केस दर्ज करा दिया गया। यह जूते बनाने वाली कंपनी के खिलाफ भी एफआईआर दर्ज की गई थी। अभी करनाल के मुख्य बाजार में पंडित जी जूते की दुकान करे दिख गए तो यह घटना ताजा हो गई। सवाल उठता है कि 'मोची' जातिवादी नहीं लेकिन 'ठाकुर' जातिवादी हो गया... है ना कमाल...!
जब मोची का काम दूसरी बिरादरी के लोग करने लगे तो... उनकी जाति क्या बदल जाएगी? सवाल गंभीर है...क्योंकि ऐसा तो हर जाति बोले तो पेशे वालों के साथ हो रहा है। सफाईकर्मी की भर्ती निकलती है तो हर बिरादरी के लोग पहुंच रहे हैं... फिर आरक्षण की बात बेमानी नहीं लगती...! लेकिन गुरू... देश में जातिवाद हावी है और तमाम लोग उसे समय-समय पर भरपूर खाद-पानी देते रहे हैं और देते रहेंगे लेकिन समाज के लोगों को ही यह बात समझनी होगी कि उन्हें क्या करना है? जैसे हम शौच के बाद अपने हाथों को धो लेते हैं... उन्हें काटकर फेंक नहीं देते क्योंकि वे हमारे लिए कितने जरूरी हैं, इसे बताने की जरूरत नहीं है... इसलिए काम कोई भी करे... हम सभी को हर पेशे का सम्मान करना चाहिए। आप कितने बड़े अधिकारी हो या कोई मंत्री आदि... नाई के सामने जब बाल कटवाने जाएंगे तो अपने हिसाब से सिर को घुमा नहीं सकते...! नाई के हाथ में उस्तरा होता है और आपने ज्यादा अकड़ दिखाई तो आप घायल हो सकते हैं... इसी प्रकार जब आप छोटे होते हैं तो आपकी मां आपकी गंदगी साफ करती है... लेकिन बड़े होने के बाद आप उसे अछूत नहीं कहेंगे... इसी प्रकार गंदगी से दूरी बनाना तो समझ आता है लेकिन किसी को अछूत समझना... गलत है। मेरा स्पष्ट मानना है कि कोई जाति अस्पृश्य नहीं होती... हम लोगों ने उसे बनाया है।
हमारा समाज भी गजब है... जन्म मां देती है और नाम सभी पिता का लेते हैं... जबकि बच्चे में पिता का केवल अंश होता है और जीवन उसे मां ही देती है लेकिन जब किसी स्त्री का विवाह हो जाता है तो उसका नाम बदल जाता है... इन हालातों में जाति की बेड़ियां हमको जकड़ती जाती हैं। सफल होने के लिए इस्तेमाल किया गया कोई टाइटल बोले तो संबोधन जाति की तरह कब बन जाता है... पता तक नहीं चलता। #1EK नाम है.... राजेश्‍वर सिंह विधूड़ी... क्या आप इन्हें जानते हैं... आपका जवाब शायद ना... होगा लेकिन जब आपसे कोई पूछेगा कि राजेश पायलट को आप जानते हैं तो आप कहेंगे हां... हां... लेकिन दोनों शखि्सयत #1EK की हैं...! भारतीय वायुसेना के लिए क्वालीफाई करने के बाद उनकी जिंदगी बदली... इस पहले पड़ाव के बाद बाद में संजय गांधी के कहने पर उन्होंने राजेश पायलट के नाम से चुनाव लड़ा और फिर वह प्रसिद्ध हो गए। अब उनके बेटे अपने नाम के साथ पायलट शब्द ही जोड़े हुए हैं। यह #1EK कहानी नहीं है... समाज में ढूंढेंगे तो हजारों कहानियां नाम बदलने की आपको मिल जाएगी। अब थोड़ी कड़वी दवा- अपने फायदे के लिए लोगों को आरक्षण चाहिए... इसके लिए वे आंदोलन तक करने से गुरेज नहीं करते लेकिन जब क्रीमी लेयर वाले स्वयं पीछे हटकर जरूरतमंद को आगे आने नहीं देंगे तो उनकी जाति वालों का भला कैसे होगा? यह सवाल मौजूं है। साफ है कि जब पेट भरा होता है तो जाति कोई मायने नहीं रखती। बहिन जी के नाम से मशहूर राजनेता के पैर छूने वालों में तमाम ब्राह्मण भी नजर अाते हैं... वजह है स्वार्थ...!
इसी प्रकार जब किसी को अपने फायदे के लिए आरक्षण चाहिए होता है तो जाति प्रमाणपत्र हासिल करने के लिए कार्यालय के चक्कर लगाते दिख जाते हैं और जब कोई उन्हें उसी जाति के नाम से संबोधित करता है तो बुरा मान जाते हैं। यह दोहरा मापदंड क्यों? दूसरी ओर समाज में एकजुटता लाने के लिए जाति छोड़ो, देश को जोड़ो जैसे अभियान भी चलाए जा रहे हैं लेकिन सच यही है कि जैसे विकास@विनाश है, उसी तरह जाति का स्वरूप है। जाति की तरह ही समुदाय और लिंग के आधार पर भेदभाव भी समाज में किया जाता है। यह किसी से जायज नहीं है। #1EK लोकतांत्रिक देश के नाते संविधान के अनुच्छेद 15 में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान के आधार पर नागरिकों के प्रति जीवन के किसी क्षेत्र में भेदभाव नहीं किए जाने की बात कही गई है लेकिन सबसे बड़ा विरोधाभास यही पर दिखता है कि सरकारी औहादे के लिए आवेदन या चयन की प्रक्रिया के वक्त जाति को प्रमुखता दी जाती है और अब बिहार में इसका वृहद रूप दिखाई दे रहा है। हिंदू धर्म सनातन है और सबको इसमें जातिगत समस्याएं ज्यादा दिखाई देती हैं लेकिन इसकी कथित खामियों ने नए-नए पंथों को जन्म दिया... लेकिन इसके बावजूद क्या जातिगत समस्याएं खत्म हो गईं... नहीं ना...!
मेरा मानना है कि जातिगत समस्या सिर्फ मानसिक है... कई बार हम किसी को देखकर अपना मुंह नहीं बना लेते हैं... तो कई मर्तबा कोई अंजान व्यक्ति भी हमें बहुत अच्छा लगने लगता है। हम उन्हें जाने या ना जाने... जाति पूछे या न पूछे... कई बार हमारे रिश्तेदारों से ज्यादा महत्वपूर्ण कोई ऐसा व्यक्ति बन जाता है, जो दूसरी बिरादरी का होता है। जरूरी नहीं है कि वह व्यक्ति आपका दोस्त हो... क्योंकि रिश्ते भले हमारे जन्म से हमको मिलते हैं लेकिन कई संबंध जीवन में ऐसे भी बन जाते हैं, जिन्हें हर कोई सहेजना चाहता है। ऐसे में जाति का मुद्दा तब गौण नहीं हो जाता?
हर कोई समानता की बात करता है.. लेकिन क्या यह संभव है? उत्तर स्पष्ट है नहीं... क्यों? जैसे दिन की जरूरत रात देखने के बाद होती है... उसी प्रकार ऊपर-नीचे का ढांचा तो बनेगा ही रहेगा... मुद्दा जाति का हो या स्टेटस का। पुराने समय में हिंदू समाज चार वर्णों में विभाजित कहा जाता है और आज के दौर में नौकरी की बात करें तो चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी ही आखिरी सीढ़ी होती है किसी ऑफिस की... क्या यह कटु सत्य नहीं है...! दूसरा उदाहरण भी है... नशे के खिलाफ हर सरकार अभियान चलाती है और उसे बढ़ावा भी वही देती है... राजस्व के लिए...! हमारा पेशा ही हमारी पहचान है और जाति तो जन्म से मिलती है लेकिन किसी को काम की वजह से छोटा समझना ही हमारी भूल है। गुस्सा अकेले का हो तो वह भले काम न आता हो लेकिन जब सब मिलकर करते हैं तो यह आंदोलन बन जाता है।
आइए हम #1EK बने.... क्योंकि यही #1EKBharat की ताकत होगी। Dr. Shyam Preeti

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