हर #1EK भारतवासी को समझनी होगी आजादी की कीमत

आजादी के समय सोने की कीमत 89 रुपये थी जो अब 52 हजार रुपये के पार पहुंच चुकी है। इसे अब दूसरे दृषि्टकोण से समझे तो हमारी आजादी की कीमत कितने गुना बढ़ चुकी है... इसका केवल अंदाजा लगाया जा सकता है लेकिन इस तथ्य की किसी को कोई परवाह नहीं है। हम भूल चुके हैं कि हमारी आजादी की सीमा वहीं खत्म हो जाती है, जहां से दूसरे की सीमा शुरू होती है लेकिन इस बात से हम इत्तफाक नहीं रखते क्योंकि खुद को श्रेष्ठ साबित करने में हम सभी लगे हैं। आज आज़ादी का अमृत महोत्सव आजाद भारत के 75 वर्ष की गवाही दे रहा है लेकिन हम अभी तक अपने अधिकार और कर्तव्यों तक को ठीक से समझ नहीं सके हैं। अधिकार... जिसे हमें छोड़ना नहीं चाहिए, उसे हम आसानी से छोड़ देते हैं और कर्तव्य, जिन्हें भूलना नहीं चाहिए, उसे उसी आसानी से भूल जाते हैं। इस सच को स्वीकारने के लिए हम अभी तक तैयार नहीं हैं। सरकार अभियान चला रही है... हर घर तिरंगा लेकिन तिरंगा हाथ में लेने भर से हम देशभक्त नहीं बन जाते... तिरंगे की #1EK गरिमा है, जिसे हमें समझना होगा।
जैसे- तिरंगे में तीन रंगों की पट्टियां हैं। रंगों के बारे में किसी से पूछिएगा तो जवाब मिल जाएगा... केसरिया, सफेद और हरा... फिर इन रंगों के अर्थ पूछेंगे तो भी शायद जवाब मिल जाए...! केसरिया रंग देश की ताकत व साहस को दर्शाता है वहीं हरा रंग भारत भूमि की उर्वरता, वृद्धि और शुभता का प्रतीक है और सफेद रंग शांति और सच्चाई का प्रतीक है। लेकिन जब धर्म चक्र के नीले रंग की चर्चा करेंगे तो जवाब मुश्किल से मिलेगा। कहते हैं कि गहरे नीले रंग का अशोक चक्र गतिशीलता का प्रतिनिधित्व करता है। वैसे नीला रंग बल, पौरूष और वीर भाव का प्रतीक माना है। ये हुए चार रंग... लेकिन मुट्ठी तो चार उंगलियों और #1EK अंगूठे से बनती है तो पांच रंग झंडे में कौन सा है? यह सवाल आपको चौंका सकता है लेकिन इसका जवाब है शहीदों के लहू के लाल रंग, जो नजर भले नहीं आता हो लेकिन इस अदृश्य रंग को हम सभी महसूस कर सकते हैं...! सच है कि हर साल 15 अगस्त आता है और चला जाता है...। सुबह से प्रभात फेरियां निकाली जाती हैं और जगह-जगह देशभक्ति के गीत बजाए जाते हैं। आजादी की महिमा गायी जाती है और सुनी जाती है लेकिन इस आजादी को हमें दिल से समझने की जरूरत ज्यादा है। जिस व्यक्ति ने गुलामी को झेला हो, उससे आजादी का मतलब पूछिए तो वह बेहतर तरीके से इसे बता सकता है। हमें तो आजादी विरासत में मिली है लेकिन विरासत को क्या सहेजना हमें नहीं चाहिए लेकिन हम उसका दुरुपयोग कर रहे हैं।
क्या अपनी मर्जी के हिसाब से जीना ही आजादी है ? यह सवाल जितना आसान लगता है, जवाब उसका उतना ही कठिन है। मेरा मानना है कि जैसे जीवन में हर चीज का दायरा निश्चित है, वैसे ही आजादी की भी सीमाएं हैं। अपने दायरे में रहना ही हमारी आजादी है और दूसरे के दायरे में हस्तक्षेप... आजादी का गलत इस्तेमाल। हम सिर्फ अपने हितों का ध्यान रखना चाहते हैं लेकिन दूसरों के हितों को भूल जाते हैं। इसे ही आजादी का दुरुपयोग कहा जा सकता है। सच है... आप कमजोर हों या ताकतवर... सभी को मदद की जरूरत पड़ती है। वैसे ही आजादी सबको तभी हासिल हो सकती है जब हम अपनी सीमाओं को अच्छी तरह पहचाने। जैसे चौराहे पर लाल रंग की बत्ती होने पर कोई रुक जाता है क्योंकि बगल में हरी लाइट दिखने पर उधर के लोग चल पड़ते हैं। जैसे ही रंग बदलता तो पैदल चलने वालों का नंबर लगता है और वे सड़क पर अपने ट्रैक पर दौड़ पड़ते हैं। जीवन में यदि इसी प्रकार सभी इंतजार और दूसरों को आगे बढ़ने का मौका दें तो आजादी के मायने सच में बदल सकते हैं लेकिन आज जो देश के हालात हैं, उससे ऐसा होना आसान नहीं लगता। सभी आजादी का अर्थ अपने-अपने मुताबिक लगाते हैं। जिसके सिर पर छत नहीं है, वह मकान चाहता है और जिसके पास रोजगार नहीं वह नौकरी। हर तरह का अभाव... आजादी पर सवालिया निशान लगाता है। उनके लिए अपनी कमी को हासिल करना... यही है असली आजादी...! जैसे ही हमारा अभाव दूर होता है तो हम स्वयं को आजाद समझने लगते हैं और फिर खुद वही शोषण शुरू करने के लिए खुद को सही साबित करने की कोशिश करते हैं, जिसका कभी हम विरोध किया करते थे। जैसे ही हम निरंकुश होते हैं, अपने साथ दूसरों की आजादी के लिए भी खलनायक बन जाते हैंं। खलनायक बोले तो विलेन... और हम तो चाहते हैं कि हम हीरो बने... तो हमें सबसे पहले अपने दायरे को पहचानना होगा और इस काम के लिए ईश्वर ने हमें विवेक रूपी हथियार भी दिया है। इसका इस्तेमाल कर हम सभी हीरो बन सकते हैं और समाज की बेहतरी के लिए काम कर सकते हैं। दुनिया में सबसे कीमती पानी माना जाता है, वैसे ही मेरे मतानुसार... दुनिया में पानी की तरह बहने वाले पसीने का गोमुख अर्थात श्रम भी पूजनीय है। इसकी हम सभी को बर्बादी रोकनी चाहिए। किसी व्यक्ति का समय सबसे ज्यादा कीमती माना जाता है... लेकिन यदि वह व्यक्ति आम होता है तो... उसके श्रम का महत्व हम समझना नहीं चाहते। मेरी निगाह में किसी भी व्यक्ति के श्रम की बर्बादी सबसे बड़ा पाप है। यह उसकी आजादी के खिलाफ है और यह काम करने वाला शख्स अपराधी की श्रेणी में आता है। महंगाई के मुद्दे पर भी यही हाल है। किसान मेहनत करता है... फसल उपजाता है लेकिन उसे उपज का कितना फायदा मिलता है, यह हमेशा से सोचनीय रहा है। स्वतंत्रता से पूर्व से अब तक किसानों की हालत में भले बहुत सुधार हुआ हो लेकिन उनके चेहरे पर दर्द और विषाद के भाव आज भी गाहे-बगाहे दिख जाते हैं। जैसे- आज टमाटर लगभग 200 रुपये किलो बिक रहा है और वही कुछ समय पहले 10 रुपये किलो बिक चुका है। कीमतों में इतने बड़े अंतर का लाभ क्या किसानों को मिल रहा है, तो चंद ऐसे लोग हो सकते हैं लेकिन ज्यादातर किसान अभाव में जीते नजर आते हैं। फिल्मों में भले खुश नजर आने वाला यह तबका हकीकत में समस्याओं से घिरा हुआ है। हरित क्रांति का असर है कि साल-दर-साल अच्छी फसल के रिकॉर्ड टूटे हैं और टूट रहे हैं लेकिन किसानों को उनकी मेहनत का सही हक मिलना काफी कठिन रहा है। उन्हें एकत्र कर राजनीति करने वाले तो समृद्ध वर्ग से आते हैं लेकिन उनकी बेहतरी के लिए काम कितने किए गए, यह बड़ा सवाल है। जैसे- बुंदेलखंड के इलाकों में गाहे-बगाहे कर्ज के तले दबकर तमाम किसान दम तोड़ते रहे हैं। दूसरों के लिए अन्नदाता किसान कई बार भुखमरी तक का शिकार बन जाता है, इसे क्या सही मायने में आजादी कहा जा सकता है? सफेद क्रांति, हरित क्रांति के जरिए उनके जीवन की बेहतरी के प्रयास किए गए लेकिन हालात अभी भी कमोवेश ज्यादा नहीं बदले हैं। जहां तक सरकार की बात है तो वह मूलभूत जरूरत की चीजें रोटी, कपड़ा और मकान पर बहुत ध्यान दे रही है लेकिन देश का बचपन बोझ ढो रहा है। बच्‍चे अपने बजन से ज्यादा बस्ते का बोझ ढो रहे हैं। अभिभावक परेशान हैं पर बच्चे को आगे बढ़ाना है... नतीजा किताबों का बोझ वह खुद उठा रहे हैं लेकिन स्कूल में तो यह वजन बच्चों की पीठ पर लाद दिया जाता है। इससे उन्हें कब आजादी मिलेगी, कोई बताता नहीं है। स्कूल वाले प्राइवेट किताबें खरीदने को मजबूर करते हैं और उनका वजन दाम के अनुरूप होता है। नतीजा... बच्चे का विकास भले रुक जाए पर पीठ पर बोझ बढ़ जाता है।
कुल मिलाकर असली आजादी हासिल करने के लिए हर पीढ़ी संघर्ष कर रही है। तमाम युवाओं को नौकरी की तलाश है और इसे हासिल करने के लिए वे नंगे होकर प्रदर्शन तक कर रहे हैं। जो युवा नौकरी कर रहे हैं. वे ‘कछुए’ बनकर बैग टांगे दौड़ रहे हैं। बचपन के बस्ते का बोझ, वे आज भी ढो रहे हैं। कछुए और खरगोश की दौड़ चल रही है लेकिन इस दौड़ में कछुए नहीं खरगोश जीत रहे हैं। खरगोश वे चालाक लोग हैं, जो दूसरों की आजादी का अतिक्रमण कर लेते हैं। साइंस कहती है कि खरगोश का पाचन तंत्र कमजोर होता है और इससे साफ है कि आजादी को यह वर्ग हजम नहीं कर सकता है। हम आजाद जरूर हैं लेकिन किसी की इज्जत खराब करने के लिए नहीं... हम स्वतंत्र हैं लेकिन किसी को गुलाम बनाने के लिए नहीं, हम स्वच्छद हैं लेकिन मनमाना आचरण करने के लिए नहीं...! Dr. Shyam Preeti

Comments

Popular posts from this blog

#1EK फिल्म 'द केरल स्टोरी' ....

चर्चा का बाजार गर्म हो गया.... हिंदी का महज #1EK शब्द ‘भारत’ लिखा तो...

चंद्रयान #1EK से अब चंद्रयान-3 तक का रोमांचक सफर