बहादुर शाह जफर..... महल नहीं अंतिम सांस गैराज में ली

अंतिम मुगल सम्राट का नाम... बहादुर शाह जफर... बहादुर बोले तो वीर.. शाह अर्थात राजा और ज़फर का मतलब होता है विजय... लेकिन किस्मत ने उन्हें बादशाह होने के बावजूद बहुत गम दिया। उनकी असाधारण शोहरत की वजह 1857 ई. का इंकलाब माना जाता है लेकिन यह भी सच है कि वह #1EK बड़े शायर भी थे। अपनी मौत से पहले ही उन्होंने लिख दिया था- कितना बदनसीब है ज़फर दफ़न के लिए, दो गज़ ज़मीन भी न मिले कुए यार में...। तारीख थी 7 नवंबर 1862 और जगह थी रंगून (अब म्यांमार)... उनकी मौत हो गई और भारत का अंतिम मुगल सम्राट गुमनामी में खो गया। इसे मुकद्दर ही कहेंगे कि उनकी चार बीबियों से 47 औलादें हुईं थीं... लेकिन उनके आखिरी समय में सिर्फ दो बेटे बचे थे।
इससे पहले उनकी जिंदगी में आई सात अक्टूबर की तारीख... उन्हें गुमनामी की जिंदगी जीने के लिए काला साया बनकर आई थी। किसी को पता तक नहीं चला कि बहादुर शाह ज़फर को निर्वासित कर दिया गया। तड़के तीन बजे अंग्रेज अफसरों ने उन्हें नींद से जगाया और फौरन तैयार होने का फरमान सुना दिया। समय बलवान होता है... इस समय वह बादशाह केवल नाम के रह गए थे... और दिल्ली मंे हुक्म अंग्रेजों का चल रहा था। घंटे भर बाद करीब चार बजे उन्हें अपनमे माल असबाब के साथ दिल्ली से रंगून के लिए रवाना कर दिया गया। उनके साथ उनकी बीवी और दो बच्चे मिर्जा शाह अब्बास और जवाबख्त रह गए थे। उनके साथ एक घुड़सवार तोपखाना और तीन पालकी में अंग्रेज अफसर व सैनिक भी थे। 10 दिनों के बाद वह 17 अक्टूबर को रंगून पहुंचे। इतिहासकार विलियम डेलरिपल अपनी किताब द लास्ट मुगल में लिखते हैं- सब कुछ इतनी जल्दी हुआ कि बहादुर शाह को भी अपने निर्वासित होने का इल्म तक न चला। डेलरिपल के अनुसार, बगावत के आरोप पर उन पर मुकदमा चला और 16 लड़कों में से ज्यादातर फांसी दे गई और तीन को गोली मार दी गई थी। रंगून में उनकी मौत की खबर भी भारत #1EK पखवाड़े के बाद पहुंची। #1EK जगह पर पढ़ा था... मकेंजी नामक समुद्री जहाज़ से बहादुर शाह ज़फर रंगून पहुंचे। उनके साथ शाही खानदान के 35 लोग थे। तत्कालीन समय कैप्टेन नेल्सन डेविस रंगून का इंचार्ज था। उसने बादशाह और उसके लोगों को बंदरगाह पर रिसीव किया और उन्हें लेकर अपने घर पहुंचा। उसने उन्हें जेल के बजाय अपने गैराज में रखने का इंतजाम किया। तारीख थी 17 अक्टूबर और महज तीन हफ्तों के भीतर इस गैराज से उनकी रूह रुख्सत हो गई। तारीख थी सात नवंबर... बहादुर शाह ज़फर का साथ उनके परिजनों से खत्म हो गया। इसी गैराज में उन्होंने अपनी मशहूर गजल लिखी थी- लगता नही है दिल मेरा उजड़े दियार में, किस की बनी है है आलम न पायेदार में.... और कितना बदनसीब है ज़फर दफ़न के लिए, दो गज़ ज़मीन भी न मिले कुए यार में...। मौत से पहले ज़फर ने खिड़की खोलने की फरमाइश की थी... लेकिन इस तुच्छ काम के लिए भी उन्हें अंग्रेजों की इजाजत लेनी पड़ी... इंतजार करना पड़ा... और आजाद सांस की इंतजार करते-करते ज़फर ने दम तोड़ दिया। ज़फर नाम होने के बावजूद उस बादशाह ने कितनी जिल्लत भरी जिंदगी जी होगी, यह सोचकर रूह कांप जाती है... पर बदनसीबी की कहानी अभी भी बाकी थी। हिंदुस्तान के आखिरी बादशाह की रुख्सती की तैयारी के दौरान शहजादा जवान बख़्त और हाफिज़ मोहम्मद इब्राहीम देहलवी ने गुसुल दिया। उन्हें दफनाने की जगह रंगून में तय नहीं हुई तो ज़फर को उसी सरकारी बंगले के पीछे खोदाई कर खैरात में मिली मिटटी के नीचे दफना दिया गया। हालांकि उनकी कब्र को लेकर विवाद का विषय लगातार बना रहा।  Dr. Shyam Preeti

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